स्व-शरीर मोह नष्ट होने से संसार के प्रति मोह दूर होता है । सर्वशुभरूपी आप्त कामना पूर्ण बुद्धि से ही विश्व के प्रति उदारता, दया, कृपा, करूणा का प्रसवन तथा विश्व की आधारभूत सत्ता में सहअस्तित्व ज्ञान एवं अनुभव होता है ।
संयमता के बिना बौद्धिक मूल प्रवृत्तियों की परिष्कृति, बुद्धिबल, सामाजिक मूल्यों की अनुभूति, चैतन्य क्रिया का दर्शन, समाधान और संयमता सिद्ध नहीं होती है ।
“कृतज्ञता ही संयमता का आद्यान्त आधार है ।”
कृतघ्नता में असंयमता प्रत्यक्ष है । शैशव एवं किशोरावस्था में ही कृतज्ञता का रोपण आवश्यक है ।
दयापूर्ण विचार निरन्तरता से कार्पण्य दोष का निवारण होता है, परम आल्हाद का अनुभव होता है ।
जिस लक्ष्य में अन्तःकरण (मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि) को तदाकार करें उसी में वह प्रखर होता है । जैसा जल में तदाकार होने से संताप का नाश और तृप्ति का अनुभव होता है ।
अग्नि में तदाकार होने से रोग का नाश और आरोग्य लाभ होता है ।
वायु में तदाकार होने से अस्थिरता का नाश और स्थिरता का लाभ होता है ।
प्रकाश में तदाकार होने से अज्ञान का नाश और ज्ञान का उदय होता है ।
परहित चिन्तन से उत्साह व आल्हाद की वृद्धि होती है ।
परोपकार से यश होता है ।
समस्याओं को सुलझाने से गौरव होता है ।
सबके कल्याण चिन्तन से प्रतिभा का विकास होता है ।
पर गुण गणना अभ्यास से स्वदुर्गुणों का नाश होता है ।