वृत्त बनायें, यह आसानी से हाथ से भी बनता है, कम्पास से भी बनता है । उसके बाद आधे-आधे में एक-एक वृत्त भीतर बनायें, भीतर बना वृत्त छोटा होता जाता है, इस प्रकार धरती का भीतरी सतह ऊपरी सतह से छोटा ही होता जाता है । हम मानव भ्रमवश पाताली स्रोतों में ऊपरी सतह से ज्यादा मिलने के उम्मीद से जूझ गये । इससे भी अपूर्व क्षति घटित हो चुकी है । इस मुद्दे पर सार्थक विचार किया जाय तो यह निश्चित होता है कि पाताली जल का स्रोत धरती की ऊपरी सतह पर बहता हुआ जल ही है । इस धरती के ऊपरी हिस्से में जल फैला है, बह रहा है, इनकी आवर्तनशीलता बनी ही रहती है । यह सीधा सूर्य ऊष्मा के सम्पर्क में होने के फलस्वरूप, धरती पर जल का वाष्पित होना, यही वाष्प सघन होकर बादल के रूप में परिणित होना, ऐसे बना हुआ बादल किसी अवधि तक समृद्ध होना, ऐसे समृद्ध होने का फलन में पुनः धरती पर बूंद-बूंद के रूप में वर्षा होना, यह आवर्तनशीलता देखने को मिलता है । इसमें यही सार्थक होना सुनिश्चित होता है, धरती पर जल को ज्यादा जगह में फैला कर रोका जाय, रखा जाय । इसी से मानव का भविष्य सुरक्षित हो सकता है ।
इसके साथ-साथ और भी ध्यान देने पर पता लगता है कि प्राणावस्था का वैभव, जीवावस्था और ज्ञानावस्था का वैभव, कार्यकलाप, कार्य-व्यवहार की शुभ स्थली धरती के ऊपरी सतह पर ही प्रमाणित है । ये तीनों अवस्थायें धरती के भीतर कहीं भी वैभवित नहीं हो पाती । इसी के साथ यह भी देखने को मिलता है, खगोलीय प्रकाश ऊपरी हिस्से में ही प्रतिबिम्बित होती है । धरती अपारदर्शी होने के आधार पर खगोलीय प्रकाश धरती में पारगामी होना संभव नहीं है । इन सभी तथ्यों पर मानव को ही ध्यान देना आवश्यक है । क्योंकि मानव ही धरती के भीतरी हिस्से में हस्तक्षेप किया है, इसका परिणाम अशुभ हो चुका है । इसका स्पष्टीकरण हो चुका है। मानव शुभ ही चाहता है । शुभ सूत्र और व्याख्या में पारंगत होने की आवश्यकता है । ऐसे शुभ सूत्र और व्याख्या अथवा सर्व शुभ सूत्र और व्याख्या के आधार पर सहअस्तित्व विधि अर्थात् नियम, नियंत्रण, संतुलन, न्याय, धर्म, सत्य पूर्वक समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तितव को प्रमाणित करता हुआ जीता है । सार्वभौमता शुभ का सूत्र और व्याख्या है । इस बात को हम अच्छी तरह समझ चुके हैं । पहले व्याख्या कर चुके हैं, अखंडता सूत्र है सार्वभौमता व्याख्या है, इसका धारक-वाहक मानव ही है । यही जागृति का प्रमाण है, सौभाग्य का वैभव है । यही मानव की चाहत भी है, इसीलिए सभी अनुचित, अनावश्यक, अनर्थकारी प्रवृत्तियाँ, कार्य-व्यवहार, विन्यास, मानव के द्वारा भ्रमवश घटित हो चुकी, उसे जागृति पूर्वक सुधार लेना ही मानव का सम्मान है, साथ में सौभाग्य है ।