धर्म का मूल तत्व ईश्वर, आत्मा, ईश्वर वाक्य, ईश्वर आज्ञा है- ऐसा माना गया है । जबकि ईश्वर अभी तक रहस्यमय है अथवा रहस्य में छुपा हुआ है। ये सब ईश्वर आज्ञाएँ ईश्वरवाणी के रूप में, कितने ही मूल ग्रंथों में, पावन ग्रंथों में, कितने ही समुदायों में माना गया हैं। जितने भी प्रकार की ईश्वर वाणियाँ अनेकानेक ग्रंथों में है; वे सब एक रूप, एक अर्थ प्रतिपादित करने वाले नहीं हैं। इस कारण कोई पावन ग्रंथ सार्वभौम नहीं हो पाया। कोई भी ऐसा पावन ग्रंथ अध्यवसायिक विधि से अर्थात् रहस्य विहीन यर्थाथता, सत्यता, वास्तविकता पूर्ण पद्घति, प्रणाली, नीति सम्मत विधि से उसे अध्ययनगम्य नहीं करा पाया।
पहले ही ईश्वर रहस्यमय रहा। रहस्य पर आधारित सभी पावन ग्रंथ एक-दूसरे से असहमत हुए। फलस्वरुप वाद विवाद हुआ जिसकी अंतिम परिणति झगड़ा और युद्घ के रूप में हुई। युद्घ के लिए राजाश्रय की आवश्यकता रहा। इस प्रकार पावन ग्रंथ रुपी धर्म-संविधान भी वाद-विवाद का केन्द्र बना। हर आदमी किसी न किसी धर्म संविधान और राज्य संविधान में अर्पित होते ही आया। धर्म तथा राज्य संविधान भिन्न भिन्न रहे। इसका फल यही निकला कि हर व्यक्ति दूसरे किसी पावन ग्रंथ को अथवा धर्म संविधान को मानने वाले के साथ वाद विवाद करते रहा। यही एक मात्र धार्मिक कार्य हो गया। इस विधि से हर व्यक्ति अपने-पराये की दीवाल बनाने वाला शिल्पी हो गया।
फलस्वरुप सामान्य जन मानस अपने-पराये की मानसिकता के साथ जीने को बाध्य हुआ। इसी मानसिकता के साथ जब-तब दूसरे धर्म संविधानों को अनुसरण करने वालों के साथ झड़प होते ही रही। आदमी, आदमी को मारने के लिए, वध करने के लिए अपने पराये के आधार पर मानसिकता को तैयार करते आया। आज भी इस प्रकार की घटनाएँ बारबार देखने को मिल रही हैं। इस अपने पराये की दीवाल बनाने के धंधे में सारा राज्य प्रबंध (संविधान), संपूर्ण पावन धर्म संविधान सिमट गया। अब एक ही धंधा सभी समुदायों के साथ बचा है वह है एक दूसरे समुदाय को कैसे मिटाए। इसके अलावा और कोई चिंतन मानव मानस में जीता जागता दिखता नहीं है। इसी के साथ संग्रह भी समाया हैं। विकसित देश की समीक्षा समर शक्ति के आधार पर ही विश्व स्तरीय संस्थाओं में हो चुकी है अब धर्म कहलाने वाले आधारों पर भी मारपीट ही एक मात्र कार्यक्रम रह गया है। इसके लिए भी बहुत सारा धन चाहिए ही। उसके लिए अनेक प्रकार से धन संचय करने का अनुसंधान भी कर लिया गया हैं।
इस अनुसंधान की समीक्षा अर्थात् धन संचय की समीक्षा शोषण, द्रोह, लूट-खसोट की चौखट में स्पष्ट है। यह तो सिद्घांत ही है कि किसी का शोषण किये बिना धन संचय नहीं होता। इस क्रम में मानव अपनी संपूर्ण शक्तियों अर्थात् कल्पनाशीलता, कर्म स्वतंत्रता, विचारशीलता जैसी मौलिक शक्तियों को दाँव पर लगा चुका है। यह मौलिक इस प्रकार से है कि केवल मानव में ही कर्मस्वतंत्रता कल्पनाशीलता और