इस तथ्य के आधार पर विश्व मानव ऐसा एक सद् बुद्धि का प्रयोग कर सकता है मानव सहज अपेक्षा रुपी सुख शांति सबके लिए सुलभ हो ऐसा निश्चय कर सकता है। तब विविध समुदायों में मान्य, सभी पावन ग्रंथों को सार्वभौम लक्ष्य के आधार पर पुनर्विचार कर सकता है।
सुख-शांति के प्रमाण है समाधान, समृद्घि, अभय, सहअस्तित्व। इस आधार पर सुख-शांति को पहचान सकते है और मूल्याँकन कर सकते हैं। इस विधि से देखें तब संभव है कि सब में एक सामरस्यात्मक सूत्र निकल जाये। यदि नहीं निकलता है तब अस्तित्व को परम सत्य के रूप में स्वीकारते हुए- मानव चिंतन करने वाला है - सुख शांति को जानने मानने वाला है- यह स्वीकार करते हुए- अनुसंधान कर सकते है। ऐसा अनुसंधान मैंने किया है। इसी के आधार पर कि अस्तित्व परम सत्य है व मानव दृष्टा, ज्ञाता व कर्त्ता-भोक्ता है। सहअस्तित्व दर्शन और उसका अध्ययन सुलभ हो गया है।
मानव, शरीर और जीवन के संयुक्त साकार रूप में है। जीवन का अध्ययन जीवन स्वयं करता है अर्थात् मानव करता है। जीवन ही जीवन का दृष्टा है, जीवन ही अस्तित्व में दृष्टा है और जीवन ही शरीर का दृष्टा है। इस तथ्य को जीवन ज्ञान से जानना मानना संभव हो गया है। इसलिए जीवन ज्ञान परम ज्ञान है।
सहअस्तित्व दर्शन ही परम दर्शन है। इन दोनों के योगफल में मानवत्व सहित मानव अपने में व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार है- इसका प्रमाण हृदयंगम होता हैं। इसलिए मानवीयतापूर्ण आचरण ही परिपूर्ण आचरण हैं। यह अध्ययन सुलभ हो चुका हैं। इससे हम संघर्ष युग से समाधान युग में संक्रमित होने की सहज दिशा, मार्ग, प्रक्रिया, पद्घति, नीति और प्रणाली पा सकते हैं। सभी मानवों को इसे (मानवीयता) जानने, मानने और पहचानने का अधिकार है- यही इसे मानव में स्थापित करता है। इसका परीक्षण किया जा सकता है।
सहअस्तित्व मूलक मानव केन्द्रित चिंतन ज्ञान “मध्यस्थ दर्शन” के रूप में प्रस्तुत हैं। “अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व है” यह प्रतिपादित और विश्लेषित है, फलस्वरुप सहअस्तित्ववाद अपने आप अभिव्यक्त और संप्रेषित हुआ है। सहअस्तित्ववाद ही मानव वाद है। मानववाद ही मूलत: मानव में, से, के लिए सार्थक है और सहज है। मानव की सार्थकता व्यवहार में प्रमाणित होना ही सार्वभौमिकता का आधार है।
मानव मूलत: परिवार मानव हैं। अकेले में कोई कार्य और कार्य योजना नहीं बन पाती है। मानव के लिए मानव और मनुष्येत्तर प्रकृति नैसर्गिकता और वातावरण है। इतना ही नहीं, “अस्तित्व ही सत्ता में संपृक्त प्रकृति के रूप में सहअस्तित्व है और नित्य वर्तमान है।” इन्हीं तथ्यों के आधार पर समाधानात्मक भौतिकवाद, व्यवहारात्मक जनवाद और अनुभवात्मक अध्यात्मवाद मानवकुल के लिए अर्पित हुआ है।