विचारशीलता पाई जाती हैं। तथा प्रत्येक मानव व्यवहार प्रयोग में इसे प्रमाणित करता है। और किसी अवस्था में अर्थात् पदार्थावस्था, प्राणावस्था व जीवावस्था में ऐसे प्रयोग व्यवहार नहीं दिख पड़ते हैं। इसीलिए मानव में यह प्रमाणित होना मौलिक है। इस प्रमाण से मानव में अक्षय शक्ति का होना प्रमाणित होता है।
आर्थिक और राजनैतिक संचेतना के आधार पर मानव संघर्षशील है ही। धार्मिक चेतना अर्थात् धार्मिक ज्ञान अथवा धर्म कहलाने वाले ज्ञान कम से कम कल्पनाशीलता और विचारशीलता के रूप में कर्म स्वतंत्रता के आधार पर जितना और जैसा प्रमाणित होता है, उतने के आधार पर धर्म कहलाने वाले सभी मुद्दे संघर्ष में घिर आए। स्पष्ट भाषा में सभी प्रकार के धर्म कहलाने वाले सभी मुद्दे संघर्ष के गिरफ्त में हो गए। अर्थात् सभी प्रकार के धार्मिक कहलाने वाले मानव अथवा विविध प्रकार के धर्म का नाम लेने वाले मानव संघर्ष के लिए बाध्य हो गये। सभी धर्मों के मूल में प्रतिपादित पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक से आस्था घट गई। साथ ही संघर्ष और भोग लिप्सा प्रजवलित होती ही गई। इन्हीं कारणों से संघर्ष को अपनाया गया। आज की स्थिति में तथाकथित धर्म का डूबना एक अनिवार्य स्थिति बन चुकी है।
ध्यान देने का बात यह है कि व्यक्ति के रूप में प्रत्येक मानव सुख शांति चाहता भी है और इसे कहता भी हैं। जब वही आदमी किसी तथाकथित धर्म, संप्रदाय, मत, पंथ, रुढ़ियों के आधार पर बात करता है तब “और अधिक संग्रह” और “भोगवादी कार्यकलाप” के संबंध में जब बोलता है, तब अपने-पराए की दीवाल बनाता ही है। सुख शांति के संबंध में कुछ भी बात करता है, कितनी भी बातें करता है, तब अपने-पराये की दीवाल नहीं बन पाता है। अपितु सुख शांति की अपेक्षा सभी मानवों में है, इसे स्वीकारता है।
ऐतिहासिक विरोधाभास यही है कि सभी धर्म परंपराएँ सुख शांति को ध्यान में रखते हुए धर्म परंपराओं को आरंभ करती हैं। हर पावन ग्रंथ की यही मंशा है। इतना ही नहीं हर राज्य संविधान की मंशा भी यही है । किसी उस धर्म और राज्य के पक्ष में जिसमें वह समर्पित है जब आदमी बात करता है तब विरोधात्मक दीवाल चुनता ही है फलत: अपने पराये के भेद बन ही जाते है। जबकि व्यक्ति कोई पावन ग्रंथ नहीं हैं। सामान्य व्यक्ति के रूप में जब वह प्रस्तुत होता है तब उनको सुख शांति की आवश्यकता सभी मानवों में समान रूप में दिखाई पड़ती है। इससे स्पष्ट होता है कि धर्म ग्रंथों के प्रभाव के बिना जब मानव होता है तब उनकी कल्पनाशीलता और विचारशीलता विशालता की ओर दौड़ती दिखाई पड़ती है। वही व्यक्ति जब किसी धार्मिक ग्रंथ के दायरे में आ जाता है तब उसी व्यक्ति में पाई जाने वाली कल्पनाशीलता और विचारशीलता संकीर्ण होते हुए देखने को मिलती है।