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अरूपात्मक होने के कारण आयामों में सीमित नहीं है जबकि सत्ता में संपृक्त प्रकृति अनन्त इकाईयों का समूह है। साथ ही प्रत्येक इकाई आयामों सहित छ: ओर से सीमित है।

अस्तित्व सहअस्तित्व होने के कारण पूरकता और पहचान नित्य सिद्घ होती है। जो है, वह निरंतर रहता ही है और जो था नहीं वह होता नहीं। इसी कारणवश अस्तित्व जैसा है, वह अनन्त काल तक वैसा रहेगा ही। इसी सत्यतावश सत्ता में संपृक्त प्रकृति की प्रत्येक इकाई अस्तित्व में परस्परता को पहचानने के रूप में व्यवहृत है, क्योंकि प्रत्येक इकाई में रूप, गुण, स्वभाव और धर्म अविभाज्य वर्तमान है। सत्ता में प्रकृति संपृक्त होने के कारण प्रत्येक इकाई अस्तित्व धर्म सहित होता है, इसका साक्षी ही है किसी इकाई का नाश न होना। जो कुछ भी होता है वह केवल परिवर्तन और विकास ही है। धर्म का तात्पर्य जिससे जिसका विलगीकरण न हो। अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व होने के कारण यही परम धर्म का रूप है। अस्तित्व स्वयं संपूर्ण भाव होने के कारण प्रत्येक इकाई में भाव संपन्नता देखने को मिलती है। मूलत: सहअस्तित्व ही परमभाव होने के कारण अस्तित्व ही परमधर्म हुआ। इस प्रकार भाव और इकाई अविभाज्य वर्तमान है। सहअस्तित्व ही अस्तित्व का स्वरुप होने के कारण संपूर्ण भाव (मूल्य) परस्परता में पूरकता, पहचान, व्यंजना है और अभिव्यक्ति रूप में आदान-प्रदान है। संपूर्ण भाव का तात्पर्य प्रत्येक पद और अवस्था में स्थित इकाईयों की मौलिकता से है। मौलिकता का तात्पर्य मूल्य से है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि परमधर्म (अस्तित्व) प्रत्येक इकाई में समान है इसीलिए यह सार्वभौम और शाश्वत है । मूल्यों का ही आदान-प्रदान और पहचान होती है, क्योंकि परस्परता में ही पूरकता, पहचान और व्यंजनायें होती हैं। साथ ही प्रत्येक व्यंजना व्याख्यायित होने योग्य घटना है। इकाई की मौलिकता (मूल्य) नित्य वर्तमान होने के कारण नियन्त्रित, संरक्षित व सार्वभौम है।

सहअस्तित्व में परस्परता स्वभाव सिद्घ होने के कारण पूरकता और पहचान आदान-प्रदान के रूप में होना अनवरत स्थिति है। अस्तित्व ही सत्य है। सत्य ही स्थिति सत्य, वस्तु स्थिति सत्य, वस्तुगत सत्य की स्थिति में अध्ययनगम्य है। सहअस्तित्व में अध्ययन पूर्वक आदान-प्रदान का जो प्रवाह है, उसे देखने पर पता चलता है कि सत्ता में संपृक्त प्रकृति ही प्रधान (अथवा संपूर्ण) अध्ययन की वस्तु बन जाती है । स्थिति पूर्ण सत्ता में संपृक्त प्रकृति स्थितिशील दिखाई पड़ती है। स्थिति पूर्ण सत्ता में संपृक्त प्रकृति उसके अनन्त इकाईत्व के स्वरुपवश पहचानने में आती है। इसी क्रम में प्रत्येक इकाई दूसरी इकाई को पहचानने की व्यवस्था अस्तित्व में प्रकाशित हुई। स्थिति पूर्ण सत्ता में संपृक्त प्रकृति का पूर्ण में गर्भित होने का तात्पर्य है कि पूर्णता का अभीष्ट अथवा ऐसे अभीष्ट का मूल रूप समाये रहना। इसी सत्यतावश प्रत्येक इकाई पूर्णता के अर्थ में होने के लिए एक अनिवार्य स्थिति हुई। इसी क्रम में संपूर्ण इकाई का विकास की ओर

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