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(परमाणु अंश) में विकास होता नहीं है। परमाणु के पररुप (अणु) रचनाएँ विकास की लाक्षणिकता को प्रकाशित करते है, परन्तु विकास नहीं होता है, क्योंकि विकसित इकाई अर्थात् जीवन शरीर रचना के माध्यम से प्रकाशित और संप्रेषित होता है।

विकास के क्रम में ही प्रकृति दो वर्ग व चार अवस्थाओं में प्रकाशमान है। प्रकृति के दो वर्ग जड़ और चैतन्य है। प्रकृति की चार अवस्थाएँ पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था है । प्रकृति में पदचक्र और पदमुक्ति का प्रभेद चार प्रकार से है। जैसे- प्राणपद चक्र, भ्रांतिपद चक्र, देवपद चक्र और पदमुक्ति (दिव्यपद या पूर्णपद)। इसी क्रम में अस्तित्व में प्रकृति का विकास और उसका इतिहास नित्य समीचीन है।

अस्तित्व में प्रकृति सहज संपूर्ण वैविध्यताएँ विकासक्रम में प्रकाशित है। यह एक अनवरत क्रिया है। अस्तित्व में विकास क्रम शाश्वत प्रणाली है, क्योंकि अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व होने के कारण परस्पर प्रकृति के आदान-प्रदान एक स्वाभाविक क्रिया है। आदान प्रदान अपनी दोनों स्थितियों में स्वयं व्याख्यायित है। आदान-प्रदान के अनन्तर तुष्टि अथवा स्वभावगति का होना पाया जाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिस इकाई में आदान होता है उसके उपरान्त स्वभाव गति होती ही है, साथ ही प्रदान जिससे होता है, उसके उपरान्त उसमें भी स्वभाव गति होती हैं। इस विधि से सहअस्तित्व प्रमाणित होता है।

अस्तित्व ही सहअस्तित्व है :-

प्रकृति में वैविध्यता है। वैविध्यता का मूल रूप पदार्थ में अथवा प्रकृति में अनेक स्थितियाँ हैं। प्रकृति में अनेक स्थितियाँ विकास के क्रम में है। अस्तित्व स्वयं सहअस्तित्व होने के कारण प्रकृति की प्रत्येक इकाई की परस्परता में सहअस्तित्व का सूत्र समाया है। (क्योंकि प्रकृति की अनन्त इकाईयाँ परस्परता में आदान-प्रदान रत है।) सहअस्तित्व ही पूरकता का सूत्र व स्वरुप हैं। पूरकता विकास के अर्थ में सार्थक होती हैं। अस्तित्व में विकास एक अनवरत स्थिति है। विकास के क्रम में अनेक पद और स्थितियाँ अस्तित्व में देखने को मिलती है। प्रकृति, पदार्थ के नाम से भी अभिहित होती हैं। पदार्थ का तात्पर्य है कि पदभेद से अर्थभेद को प्रकाशित कर सके अथवा पदभेद से अर्थभेद को प्रकाशित करने वाली वस्तुओं से है। वस्तु का तात्पर्य वास्तविकताओं को प्रकाशित करने योग्य क्षमता संपन्नता से है। इस प्रकार प्रकृति में वस्तु और पदार्थ की अवधारणा स्पष्ट हो जाती है।

अस्तित्व में प्रकृति नित्य क्रियाशील होने के कारण प्रत्येक क्रिया में श्रम, गति, परिणाम अविभाज्य रूप में वर्तमान रहता है। इसी सत्यतावश प्रकृति में परिणाम और विकास स्पष्ट है। विकासक्रम और विकास ही

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