और स्वभाव के रूप में; गति स्वभाव और गुण के रूप में और परिणाम रूप तथा अमरत्व सहित वर्तमान है।
इकाई में मूलत: बल चुम्बकीय बल ही है। यह सत्ता में भीगे रहने का द्योतक है। इकाई के रग-रग में बल संपन्नता होने के कारण श्रम की नित्यता अपने आप स्पष्ट हो गयी। इससे व्याख्यायित हो जाता है कि प्रत्येक इकाई प्रत्येक स्थिति में श्रमशील है। श्रम निरन्तर विश्राम के अर्थ में ही हुआ करता है। विश्राम का भासाभास इकाई की स्वभावगति में होता हैं। जैसे-जैसे नैसर्गिकता और वातावरण इकाई को अपने स्वाभाव गति में रहने में हस्तक्षेप करता गया, वैसे-वैसे ही इकाई वातावरण और नैसर्गिकता के हस्तक्षेप से अथवा हस्तक्षेप के प्रभाव से मुक्त होने की क्षमता योग्यता और पात्रता को उपार्जन करने की आवश्यकता स्वभाव सिद्घ हुई। क्योंकि अस्तित्व में किसी का नाश होता नहीं इस कारण स्वभाव गति में आकर विकसित होना ही है। इस प्रकार श्रम, विश्राम के लिए अविरत प्रयासरत रहना अस्तित्व में अविभाज्य रूप में वर्तमान है। इससे पता चलता है कि समाधान की अवधि तक बल का प्रयोग अर्थात् श्रम का प्रयोग होता ही है। क्योंकि वातावरण और नैसर्गिकता के दबाव को सहना है या सहने योग्य क्षमता को उपार्जन करना है। अन्ततोगत्वा स्वभावगति में आकर विकसित होना है, गठनपूर्ण होना है। गठनपूर्णता के अनन्तर श्रम और गति दोनों अक्षय होने के कारण अक्षय शक्ति संपन्नता चैतन्य इकाई में एक स्वाभाविक स्थिति हो जाती हैं। ऐसे अक्षय शक्ति संपन्नतावश ही ज्ञानावस्था के मानव में संचेतना का परावर्तन और प्रत्यावर्तन क्रिया संपादित होना एक स्वाभाविक स्थिति है। इसी परावर्तन, प्रत्यावर्तन क्रम में पहचानने और निर्वाह करने की सामरस्यता में, जाने हुए को मानने और माने हुए को जानने की स्थिति में प्रत्येक मानव समाधानित होने और उसकी निरन्तरता की संभावना उदितादित होने की व्यवस्था स्पष्ट है।
प्रत्येक इकाई में बल संपन्नता ही मूल चेष्टा का कारण है। क्योंकि शक्ति के बिना बल का परिचय, बल के बिना शक्ति का परिचय नहीं होता। इस प्रकार मूल चेष्टा के बिना ऊर्जा का परिचय और ऊर्जा के बिना मूल चेष्टा नहीं होता। परस्परता में संपर्क के साथ हर इकाई नित्य क्रियाशील होने के कारण, क्रिया के मूल में निरपेक्ष ऊर्जा, साम्य सत्ता अपने आप नित्य प्राप्त है। इसका कारण यही है कि साम्य ऊर्जा न हो ऐसा कोई स्थान नहीं है। साथ ही साम्य ऊर्जा में संपूर्ण प्रकृति ओत-प्रोत है। इसीलिए ऐसी साम्य ऊर्जा में संपृक्तता स्वयं बल संपन्नता, बल संपन्नता स्वयं मूल चेष्टा, मूल चेष्टा स्वयं क्रिया, क्रिया स्वयं श्रम-गति-परिणाम, श्रम-गति-परिणाम स्वयं विकास और इसकी निरन्तरता है। इसी क्रम में प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक इकाई के एक दूसरे को पहचानने की व्यवस्था है।