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प्रत्येक परमाणु क्रिया अपने परमाणु अंशों के गतिपथ सहित वैभवित है। यही गतिपथ उस परमाणु की नियन्त्रण रेखा भी है और सीमा भी है। ऐसे गतिपथ की सीमा में प्रत्येक परमाणु अपने में समाहित संपूर्ण परमाणु अंशों के अनुशासन समेत परिभाषित होता हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रत्येक परमाणु में समाहित प्रत्येक परमाणु अंश अपनी परस्परता में एक निश्चित दूरी में अपने अस्तित्व को स्पष्ट करते हुए अनुशासन को, गठन के अंगभूत कार्य के रूप में प्रकाशित करते हैं। ऐसे प्रत्येक परमाणु में अंशों का घटना बढ़ना देखा जाता है।

इस क्रिया को किसी एक परमाणु से कुछ परमाणु अंशों का क्षरण होना तथा दूसरे किसी परमाणु में समा जाना या अन्य परमाणु में गठित हो जाने के रूप में देखा जाता है। इसी क्रम में गठनपूर्णता गण्य हैं। इसका साक्ष्य, अक्षय बल एवं अक्षय शक्ति संपन्नता से होता हैं। चैतन्य प्रकृति में अक्षय बल एवं अक्षय शक्ति स्पष्ट है। यही तात्विक परिणाम प्रक्रिया है। इसी क्रम में विभिन्न संख्यात्मक अंश संपन्न परमाणु अस्तित्व में दिखाई पड़ते हैं। ऐसे विभिन्न परमाणु अंशों की संख्या से संपन्न परमाणु स्वयं विभिन्न जातियों में गण्य होते हैं। यही तात्विक परिवर्तन, स्थिति, अभिव्यक्ति, प्रकाशन और ज्ञान का तात्पर्य है।

परमाणु के विकास के क्रम में एक ऐसी अवधि आती है, जिसमें उस परमाणु के गठन के लिए जितने अंशों की आवश्यकता रहती है, वे सभी समा जाते है, उसी समय वह गठनपूर्ण हो जाता है। गठनपूर्णता का तात्पर्य उस गठन में, से, के लिए तृप्ति है। यही परिणाम का अमरत्व है और चैतन्य पद है। इस पद में प्रत्येक इकाई, बल और शक्ति के रूप में समान होती हैं। गठनपूर्ण परमाणु सहित संपूर्ण प्रजाति के परमाणु अस्तित्व सहज सहअस्तित्व विधि से नित्य वर्तमान है। जीवन शक्ति अक्षय होने के कारण रासायनिक-भौतिक क्रियाकलाप में रत परमाणुओं के साथ मानव अपने प्रयोग विधि से परिणामों को पहचान पाता है।

गति प्रत्येक इकाई में घूर्णन वर्तुलात्मक एवं कंपनात्मक रूप से गण्य होता है। इसी गति एवं वातावरण के दबाववश स्थानान्तरण सिद्घ हो जाता है। स्थान का तात्पर्य साम्य ऊर्जा अथवा शून्य और ऊर्जामयता ही है। क्योंकि प्रत्येक इकाई छ: ओर से सीमित पदार्थ पिण्ड है। “ओर” का स्वरुप शून्य अथवा सत्तामयता ही है। प्रत्येक इकाई परस्परता में स्वभाव गति अथवा आवेशित गति में अवस्थित होती है। आवेशित गति का प्रधान कारण नैसर्गिकता व वातावरण के योगफल में होने वाले दबाव पर आधारित होता है। साथ ही यह भी देखने को मिलता है कि जिस इकाई के लिए जो नैसर्गिक वातावरण चाहिए, वह उस इकाई के स्वरुप में ही होता हैं। इसी कारण प्रत्येक इकाई एक दूसरे के लिए नैसर्गिक सिद्घ हो जाता है। इस प्रकार परस्पर पूरकता स्वयं सिद्घ होती है। पूरकता परस्पर स्वभाव गति की स्थिति में होने वाले आदान-प्रदान

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