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पदार्थावस्था में तात्विक क्रिया में परस्पर परमाणु अंश की निश्चित दूरियाँ स्वयं उनके परस्परता की पहचान को प्रकाशित करता है। साथ ही भौतिक और रासायनिक वस्तुओं का संगठन भी परस्पर अणुओं की पहचान का द्योतक सिद्घ हो जाता है। प्राणावस्था में रासायनिक अणु संरचनाएँ, प्राणकोशिकाओं की पहचान का द्योतक है। यह बीज वृक्ष नियम पूर्वक संपादित होते हैं। जीवावस्था में जड़-चैतन्य-प्रकृति का प्रारंभिक प्रकाशन है, जिसमें से शरीर रचना जड़-प्रकृति स्वरुप होने के कारण वंशानुषंगी सिद्घांत पर आधारित रहता है। साथ ही जीवन संचेतना जीवावस्था में अध्यास के रूप में प्रभावित रहता है। अध्यास का तात्पर्य परंपरागत कार्यकलापों और विन्यासों को गर्भावस्था से ही स्वीकारने के क्रम में गुजरते हुए जन्म के अनन्तर उसे अनुकरण करने की प्रक्रिया से है। जैसे गाय की सन्तान गाय जैसे कार्यकलापों को करते हुए देखने को मिलता है। इसी प्रकार सभी प्रजाति के जीवों में स्पष्ट है। ज्ञानावस्था में मानव, जड़-चैतन्य का संयुक्त प्रकाशन होते हुए मानव शरीर भी प्रधानत: वंशानुषंगी होता है। साथ ही संचेतना संस्कारानुषंगी होता है। इसका साक्ष्य स्वयं शिक्षा-संस्कार व्यवस्था परंपराएँ है। इससे सिद्घ हुआ कि मानव संस्कारानुषंगी प्रणाली से पहचानने के कार्यकलाप को संपादित करता है।

जीवन संचेतना में मन, वृत्ति, चित्त, बुद्घि और आत्मा जैसे अक्षय बल तथा आशा, विचार, इच्छा, ऋतम्भरा और प्रमाण जैसी अक्षय शक्तियाँ कार्यरत एवं प्रकाशमान है। मानव संचेतना में अनवरत कार्यरत अक्षय शक्तियाँ परार्वतन एवं प्रत्यावर्तन में स्पष्ट हो जाती हैं। जैसे आशा शक्ति की पहचान परार्वतन में चयन तथा प्रत्यावर्तन में आस्वादन के रूप में है। वृत्ति की शक्ति का परिचय परावर्तन में विश्लेषण, प्रत्यावर्तन में तुलन के रूप में होते हैं। इच्छा शक्ति की पहचान परार्वतन में चित्रण के रूप में प्रत्यावर्तन में चिन्तन के रूप में होती हैं। बुद्घि शक्ति की पहचान परावर्तन में संकल्प के रूप में एवं प्रत्यावर्तन में बोध के रूप में है। आत्मा शक्ति परावर्तन में प्रामाणिकता एवं प्रत्यावर्तन में अनुभव के रूप में है।

शक्तियों का अर्थात् चैतन्य शक्तियों का परावर्तन एवं प्रत्यावर्तन पहचानने एवं निर्वाह करने के अर्थ में सार्थक सिद्घ होता है। पाँचों अक्षय शक्तियों का परावर्तन एवं प्रत्यावर्तन जीवन की एक अनुस्यूत क्रिया होने के कारण यह क्रिया स्वयं जीवन संचेतना के नाम से अभिहित है। इसी क्रम में संचेतना अपनी परावर्तन क्रिया में रूप और गुणों को पहचानती है। प्रत्यावर्तन में निर्वाह करती है। इससे स्पष्ट होता है कि संपूर्ण भौतिक और रासायनिक संसार परावर्तन के क्रम में इन्द्रिय सन्निकर्ष पूर्वक पहचानने को मिलता है। जबकि मूल्य और अस्तित्व अथवा स्वभाव और धर्म प्रत्यावर्तन में ही पहचानने में आता है। फलत: इसे निर्वाह करने की प्रणाली अपने आप समीचीन होती हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि भौतिक संसार का

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