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में भागीदारी निभा रही है उसकी प्रत्येक कोशिकायें उसी स्थान में होने वाली क्रिया को संपादित करती है। यही साक्ष्य है कि कोशिकाएँ रचना के संपूर्ण रूप का प्रतिरुप है।

मूल कोशिका जब पदार्थावस्था से प्राणावस्था में परिवर्तित होती है तब उसमें यह देखने को मिलता है कि पदार्थावस्था की वह कोशिका जो प्राणावस्था में परिवर्तित होनी है, रासायनिक जल के योग में आप्लावित रहती है। ऐसी आप्लावन स्थिति में किसी एक उष्मा का दबाव और नैसर्गिकता के प्रभाव के योगफल में उसमें स्पन्दनशीलता आरंभ हो जाती हैं। यह विधि पुन: कोशिका से कोशिकाएँ निर्मित होने की विधि में भी दिखाई पड़ती हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्पन्दनशीलता के समय में पवित्र रासायिनक जल, निश्चित रासायनिक अणु, वातावरण और नैसर्गिकता (ऊष्मा) के दबाव के योगफल में प्रत्येक प्राणकोशिका का निर्मित होना अर्थात् स्पन्दनशीलता में बदल जाना सिद्घ हुआ।

कोशिकाएँ रचना में, अपने-अपने स्थान में, अपने अपने स्थान पर रहकर अपनी-अपनी निश्चित क्रियाएँ करती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि एक पौधे की जड़ में जो प्राण कोशिका कार्यरत है, वह उस स्थान के अनुरुप कार्य करती है। पत्ते में, तने में, फूल में अवस्थित कोशिकाएँ उन-उन स्थानों की निश्चित क्रियाएँ करती हुई मिलती हैं। इस प्रकार प्राण कोशिकाएँ मूलत: एक ही प्रजाति की होते हुए, उस रचना के तालमेल की महिमा में ही अपने कार्य को समर्पित किये रहती है। इनमें अपने आप में कोई व्यतिरेक नहीं होता। व्यतिरेक न होने मात्र से इनकी स्थिरता सिद्घ नहीं होती, क्योंकि प्रत्येक क्षण में एक पौधे में कई कोशिकाएँ मर जाती है और इसी क्षति पूर्ति के लिए संवेदन के लिए और भी समानधर्मी कोशिकाएँ निर्मित होती है । इसी क्रम में संपूर्ण प्राणावस्था की रचनाएँ संपादित होते रहती है। इनकी परस्पता का तालमेल और सामरस्यता इनका स्पन्दन ही है। यही स्पन्दन एक दूसरे के कार्य के साथ जुड़े रहने की व्यवस्था है। ये संकोचन-प्रसारण ही तरंग और दबाव का कार्य करते हुए एक दूसरे के साथ व्यवस्था बनाये रखती है। इस समस्त प्रक्रिया में प्राण कोशिका में होने वाली संकोचन की स्थिति में दबाव, प्रसारण की स्थिति में तरंग के रूप में प्रभावशील रहती हैं। इसी सत्यतावश संपूर्ण प्राणावस्था की इकाई विद्युतग्राही सिद्घ हुई।

मात्रा और उसका स्वरुप

मात्रा रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का अविभाज्य वर्तमान है। कोई ऐसी इकाई नहीं है जिसमें रूप, गुण, स्वभाव, धर्म न हो। मात्रा का मूल रूप परमाणु में ही आंकलित होता है क्योंकि परमाणु ही तात्विक रूप में अस्तित्व में निश्चित आचरण सहित व्यवस्था व समग्र व्यवस्था में भागीदारी प्रकाशमान है। उसके पूर्वरुप और पर-रूप में मात्रा की अस्थिरता तात्विकता (परमाणु) के अपेक्षाकृत बढ़ जाती हैं। सिद्घांत है कि

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