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तात्विक रूप में जो परमाणु अपनी स्थिति में जितने समय तक रह पाता है, वह उतने समय तक अणु के अथवा परमाणु के पूर्व रूप में नहीं रह पाता। प्रकृति में परमाणु के अंशों के रूप में, पदार्थ की स्थिति नगण्य रूप में हैं। कोई भी पदार्थ अधिकतम संख्या में अणु और अणुओं की रचना के रूप में ही मिलता है । इनमें से मात्रा का अध्ययन परमाणु का अपने स्वरुप में सम-विषम-मध्यस्थ शक्तियों से संपन्न रहने की नियति क्रम व्यवस्था हैं। परमाणु में ही संपूर्ण बल व्यवहृत होता हुआ देखने को मिलता है । पर-रूप अर्थात् अणु अथवा अणु रचित पिण्डों में मध्यस्थ बल दिखाई नहीं पड़ता। इसी कारणवश परमाणु में ही पाँचों बलों का अध्ययन-अध्यापन सुलभ हुआ है।

मध्यस्थ क्रिया अपने-आप में मध्यस्थ बल और शक्ति के रूप में है। इसकी स्थिति परमाणु के केन्द्र में होती हैं। यह अविरत रूप में सम-विषम शक्तियों पर नियन्त्रण किये रहता है। चैतन्य प्रकृति और जड़ प्रकृति में मौलिक रूप से यह अन्तर पाया जाता है कि जड़ प्रकृति में परमाणु अणु और अणु रचित पिण्डों के रूप में प्राप्त होते है जबकि चैतन्य प्रकृति परमाणु के रूप में ही वर्तमान रहती है। चैतन्य परमाणु में ही अक्षय शक्तियाँ होने के कारण प्रत्येक इकाई अपने में जीवन वैभव और महिमा का अनवरत प्रकाशन करती है। जड़ शक्तियाँ क्षरणशील होती है और चैतन्य शक्तियाँ अक्षय होती है। इसी तथ्यवश चैतन्य इकाई में परावर्तन और प्रत्यावर्तन स्वाभाविक रूप में होता है।

जड़ शक्तियाँ

चैतन्य शक्तियाँ

में पाँच बल

अक्षय बल

अक्षय शक्ति

1. विद्युत-चुम्बकीय बल

मन

आशा

2. गुरुत्वाकर्षण बल

वृत्ति

विचार

3. सामान्य (क्षीण) हस्तक्षेप

चित्त

चित्रण

4. सबल हस्तक्षेप

बुद्धि

संकल्प

5. मध्यस्थ बल

आत्मा

अनुभूति

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