अस्तित्व में रासायनिक-भौतिक क्रियाकलापों को सहअस्तित्व सहज विधि से जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना, जागृति का प्रमाण है। सहअस्तित्व स्वयं व्यवस्था है या कह सकते है कि सहअस्तित्व के रूप में व्यवस्था नित्य वर्तमान है। वर्तमान ही मानव में, से, के लिए अध्ययन की संपूर्ण वस्तु हैं। इस प्रकार से अस्तित्व ही सहअस्तित्व है। सहअस्तित्व में विकासक्रम, विकास, जीवन, जीवन जागृति, रासायनिक-भौतिक रचना एवं विरचनाएँ अध्ययन के लिए संपूर्ण आयाम है। जबकि अस्तित्व समग्र ही अध्ययन के लिए, संस्कार के लिए, व्यवस्था के लिए संपूर्ण संप्राप्ति है। यह सदा ही मानव में, से, के लिए समीचीन रहता ही है। जितना भी परेशानी, व्यतिरेक और समस्याओं को मानव ने झेला है वह सब शिक्षागद्दी, राजगद्दी और धर्मगद्दी की करामात है। आज की स्थिति में शिक्षागद्दी प्रधान है। शिक्षा के धारक-वाहक के रूप में सभी दिग्गज, बुद्घिजीवी, नेता, साहित्यकार सम्मान पाना चाह रहे है जबकि यह हो नहीं पा रहा है।
जब मैं जागृति पूर्वक अस्तित्व सहज अध्ययन के लिए प्रस्तुत हुआ तब यह पता लगा कि अस्तित्व समग्र ही अध्ययन की वस्तु है, तभी यह भी पता लगा कि मानव भी अस्तित्व में अविभाज्य है। “मानव जीवन और शरीर का संयुक्त साकार रूप है” - इसे पहले स्पष्ट किया जा चुका है। इसी क्रम में यह भी देखने को मिला कि जीवन ही सहअस्तित्व में जागृति पूर्वक दृष्टा पद प्रतिष्ठा पाता हैं। यही जीवन तृप्ति का आधार बिंदु है और यही जीवन जागृति परंपरा रूप में प्रमाणित होना-रहना सहज जागृति को प्रमाणित करने का अधिकार है। इस क्रम में मानव ही जागृति पूर्वक दृष्टा पद में है- यह ख्यात होता है। ख्यात होने का तात्पर्य है कि इंगित तथ्य सभी को स्वीकार हो चुका है। इसका लोक व्यापीकरण हो सकता है और प्रत्येक व्यक्ति इसे स्वीकारने के लिए बाध्य है। इस बाध्यता का तात्पर्य आवश्यकता, विचार, इच्छा, कल्पना के रूप में सहमति से है। जागृति सहज आवश्यकता के संदर्भ में परीक्षण किया जा सकता है। बच्चे, बूढ़े, ज्ञानी, अज्ञानी, गरीब, अमीर सबसे इस बात की परीक्षा की जा सकती है कि जागृति एक आवश्यक तत्व है या नहीं। सबका निष्कर्ष यही होगा कि जागृति आवश्यक है। इस प्रकार मानव में जागृति की आवश्यकता ख्यात होना प्रमाणित है।
जागृति का परिणाम जानना, मानना, पहचानना और निर्वाह करना ही है। यह जागृति प्रत्येक व्यक्ति में प्रमाणित हो सकता है। यह तभी संभव है जब परंपरा जो जागृति का कारक, धारक एवं स्रोत है, स्वयं जागृत रहे। अभी तक परंपरा ही भ्रमित रहा। इसका परिणाम है कि अखण्ड समाज और उसकी निरंतरता प्राप्त नहीं हुई और सार्वभौम व्यवस्था प्राप्त नहीं हुआ। इसका साक्ष्य यही है कि अभी तक अखण्ड समाज का स्वरुप नहीं बन पाया और न ही सार्वभौम व्यवस्था का।