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के लिए ही सभी शिक्षा देते है और प्रचार करते आए है । इसी के साथ रहस्य और आस्था भी बनी रही हैं। इसलिए मानव के लिए आशित सुख, समृद्घि, समाधान और सुन्दरता संभव नहीं हो पाई।

समाधान और व्यवस्था अविभाज्य है। समाधान का धारक-वाहकता प्रत्येक मानव में आवश्यकता के रूप में देखने को मिलता है । व्यवस्था समग्रता के साथ ही प्रमाणित होता है। समाधान जागृति का द्योतक है। हर व्यक्ति जागृत होना चाहता है। जागृति का मार्ग प्रशस्त होना ही इसका एकमात्र उपाय है। परंपरा में जागृति का तात्पर्य - शिक्षा-संस्कार, व्यवस्था, संविधान में जागृत मानव का लक्ष्य, स्वरुप, कार्य और प्रयोजन स्पष्ट हो जाने से है। संस्कारों का मतलब स्वीकृति से ही है, अवधारणा से ही हैं। अस्तित्व में जागृत मानव के उद्देश्य से अवधारणा को देखा गया वह है-

1. जीवन ज्ञान

2. अस्तित्व दर्शन ज्ञान

3. मानवीयतापूर्ण आचरण ज्ञान

ये ही स्वीकारने के लिए वस्तुएँ हैं। मानव परंपरा में जागृति पूर्णता की वस्तु भी इतनी ही हैं। इन्हीं तीन बिंदुओं में इंगित परम सत्य वस्तु को स्वीकारने योग्य परंपरा ही मानव संस्कार पंरपरा हैं। उक्त तीनों बिंदुओं में इंगित वस्तु की उपयोगिता विधि, सदुपयोगिता विधि, प्रयोजनशील होने की विधि, अध्ययन की अर्थात् शिक्षा की मूल वस्तुएँ है। मानव परंपरा भी अस्तित्व में अविभाज्य वर्तमान हैं। प्रत्येक मानव जीवन और शरीर के संयुक्त साकार रूप में हैं। मानव स्वयं को शरीर मानने के आधार पर इन्द्रिय सन्निकर्ष (इंद्रियों द्वारा भोग इच्छायें) ही जीवन कार्य में केन्द्र बिन्दु बन जाते हैं। फलस्वरुप अव्यवस्था, समस्या, दरिद्रता, दुष्टता ये सब हाथ लगता है। जबकि शरीर का धारक-वाहक भी जीवन ही है । यही प्रक्रिया है। जब तक शरीर और जीवन का सहज ज्ञान नहीं हुआ है तब तक मानव भ्रमित रहता है । इसी आधार पर जीवन जागृत होने की आवश्यकता और प्रेरणा अस्तित्व सहज रूप में है। दूसरी विधि से-

1. मानव अस्तित्व में है।

2. मानव अस्तित्व में अविभाज्य है।

3. मानव जागृतिपूर्वक ही जानता है, मानता है, पहचानता है, निर्वाह करता है। यही जीवन सहज जागृति प्रक्रिया है।

4. जागृति प्रक्रिया ही प्रत्येक मानव के प्रमाणित होने का वैभव है।

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