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मानव के साथ तालमेल, संबंध और कर्त्तव्यों को पहचानना। अध्ययन जब कभी मानव कर पाता है, यथार्थ विधि से ही, मानव सहज जागृति को अध्ययन कर पाता है। अभी मुख्य मुद्दा यह है कि जो कुछ भी अस्तित्व है वह अंतर्विरोध बाह्य विरोधों से प्रताड़ित रहता है या अंत: संगीत बाह्य संगीत संपन्न है। इन्हीं तथ्यों पर ध्यान देना विवेक और विज्ञान सम्मत विधि से परीक्षण करना और तथ्यों को स्वीकार करना -यही अध्ययन का सार रूप है। ऐसी अध्ययन सहज अवधारणाएँ स्वयं संस्कार यथा सहअस्तित्व सहज नियम से ही जानी जाती है।

रासायनिक-भौतिक वस्तुओं की यर्थाथता को स्वीकारने के उपरान्त यही देखा गया कि ये दोनों स्थितियाँ एक-दूसरे के लिए पूरक विधि से काम कर रही हैं। रासायनिक-भौतिक वस्तुओं का रचना-विरचना होना स्वाभाविक अर्थ हैं। इन कार्यकलापों को देखने पर पता चलता है कि रचना-विरचना एक दूसरे के लिए पूरक है। मूलत: वस्तुओं में समाहित मूल तत्वों का तिरोभाव नहीं होता अर्थात् न तो वस्तुओं को समाप्त होना है और न ही नया पैदा होना है।

पदार्थ की परिभाषा ही है- पदभेद से अर्थभेद को व्यक्त करना। जैसे- प्राणकोषाएँ खेतों में अनाज के रूप में, जंगलों में प्राणकोषाएँ पेड़-पौधों के रूप में है। जलचर, नभचर, भूचर जीवों की शरीर रचनाएँ भी प्राणकोषाओं से होना स्पष्ट है। मूल में यह ज्ञान आवश्यक है कि प्राणकोषाएँ अपने में मूलत: एक ही प्रजाति की है। विविध रचना के आकार से प्राणकोषाएँ अपने वैभव को व्यक्त करती हैं। जैसे-एक कोषीय रचना क्रम में कोषाएँ अपनी प्रजाति के दूसरे कोषा को रासायनिक वैभव के संयोग से निर्माण करना देखने को मिलता है। एक कोषिय रचना का मतलब, कोषा में जो सूत्र बना रहता है, उसी के अनुरुप, उसी प्रजाति की कोषा को निर्मित करता है। ऐसी रचनाएँ आरंभिक काल में अर्थात् जब किसी धरती पर प्राण संचार, रासायनिक वैभव, प्राणकोषाओं की अभिव्यक्ति और प्राणकोषाओं से रचित रचना आरंभ होता है, तब से इन प्रक्रियाओं का स्थापित रहना पाया जाता है।

उक्त तथ्य को चौथे व पाँचवें अध्याय में स्पष्ट किया गया है।

1. अस्तित्व में विकास होता है।

2. विकसित गठनपूर्ण परमाणु जीवन पद में संक्रमित रहता है।

3. प्रत्येक गठनपूर्ण परमाणु (तृप्त परमाणु) चैतन्य पद में संक्रमित होता है।

4. प्रत्येक चैतन्य इकाई अर्थात् “जीवन” भार बंधन व अणु बंधन से मुक्त रहता है।

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