1.0×

सम्पूर्ण मानव परम्परा सदैव से तर्क का प्रयोग करता ही आया है। क्योंकि कल्पनाशीलता कर्मस्वतंत्रतावश तर्क का उद्घाटन अपने आप में उद्गमित होता रहा। सम्पूर्ण उद्घाटन में मानव में समानता का आधार भी बना हुआ है। जैसे संख्या का पहचान सभी देश भाषा में एक ही सा है। एक दिन पहचानने का स्वर एक ही है। मानव जाति को पहचानने के स्थान पर जाति का नाम कुछ का कुछ दे रखा है। मानव धर्म को पहचानने के स्थान पर कुछ न कुछ नाम दे रखा है। मानव को ईश्वर को व्यापक रूप में पहचानना था उसके स्थान पर अपने अपने ढंग से कुछ न कुछ मान रखा है। मानव कुल सार्वभौम व्यवस्था को पहचानना था, व्यवस्था के नाम पर कुछ न कुछ मनमानी करता है। मानव कुल सत्य को पहचानने की आवश्यकता पर सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व को पहचानना था उसके स्थान पर कुछ न कुछ मान रखा है। इस प्रकार बहुत सारे चीज सार्वभौम नहीं हो पाया, कुछ चीज सार्वभौम हुआ भी अर्थात् सर्वमानव स्वीकृति एक सा है, जैसे धरती, परमाणु की स्वीकृति, पदार्थावस्था मृद्, मणि, पाषाण की स्वीकृति, अन्न वनस्पति की स्वीकृति, जीव संसार में विभिन्न जीवों की स्वीकृति, सर्वमानव में एक सा होना पाया जाता है। इसी प्रकार जल, वायु की स्वीकृति एक सा होना पाया जाता है। इससे यह स्पष्ट होता है, जिन मुद्दों पर सार्वभौमता नहीं हुई है, उन सभी मुद्दों पर पुन: विचार, परामर्श, विश्लेषण, विवेचना सहित सार्वभौम स्वीकृति के रूप में मानव स्वयं पा लेना अर्थात् मानव कुल पा लेना सर्वशुभ के लिए आगे की कड़ी है।

अभी तक जितनी भी स्वीकृतियाँ भ्रम के आधार पर अथवा जागृति के आधार पर बन चुकी है, इनके मूल में शुभ की अपेक्षा, घोषणा, प्रयोग, प्रयास, अभ्यास, व्यवहार कार्य किया जाना स्पष्ट है। यह सब प्रयोगों का नजीर रहते जिन-जिन मुद्दों में सार्वभौम स्वीकृति नहीं हो पाई है उसे स्वीकृति की एकरूपता में घटित करा लेने से ही समुदायिक फरफंदे का उन्मूलन हो पायेगा। फरफंदे का तात्पर्य भ्रमित मान्यता के आधार पर द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्ध तक पहुँचने का रास्ता से है। इसलिए सार्वभौमता के ध्रुवों पर और मानव कुल की अखंडता के ध्रुव पर, सम्पूर्ण अध्ययन पर, सार्वभौम स्वीकृति के रूप में, सार्वभौम स्वीकृति का तात्पर्य सर्वमानव स्वीकृति अथवा सम्पूर्ण देश, काल में होने वाली स्वीकृति से है, इसमें एकरूपता की आवश्यकता बनी रहती है। इस क्रम में मानव अपनी महिमा मंडित मर्यादा को पहचानना अवश्यंभावी है।

परिवार ही मूलत: सभा के रूप में, सभा ही परिवार के रूप में वैभवित होता है। निर्णय लेने के रूप में सभा कहलाता है। क्रियान्वयन करने के रूप में परिवार कहलाता है। इस प्रकार परिवार

Page 101 of 141