अध्याय - 6
व्यवहार - मानव परम्परा के साथ
एक से अधिक मानव की परस्परता में लक्ष्य सम्पन्न होने के अर्थ में किया गया सभी क्रिया, प्रक्रिया, वाद, संवाद ये सब व्यवहार नाम है। व्यवहार सदा-सदा से होता ही आया है। भले लक्ष्य ओझिल क्यों न हो। अभी तक मानव को अपनी परम्परा में लक्ष्य की अपेक्षा तो रही है। संज्ञानीयता सहित प्रक्रिया, प्रणाली, पद्धतियाँ सार्थक नहीं हो पाई। क्योंकि अभी तक जितनी भी मानव परम्परा हुई है ये सब संवेदनशीलता की सीमा में दिखती है। जबकि मानव की आकाँक्षायें संज्ञानशीलता से ही निबद्ध हैं। निबद्ध रहने का तात्पर्य सहज विधि से सहअस्तित्व विधि से अनुबंधित है। जैसे सुख हर मानव चाहता है ऐसे सुख को संवेदनाओं में खोजता है यह कैसे पूरा हो जबकि यह संज्ञानशीलता का वैभव है। समाधान के अनुभव में सुख होना स्पष्ट हो चुका है। समाधान अपने स्वरूप में समझदारी की अभिव्यक्ति होना भी प्रतिपादित हो चुकी है। समझदारी का मूल वस्तु सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान, जीवन ज्ञान ही है। इस ढंग से संज्ञानशीलता के आधार पर समझना हम पहचान चुके हैं। इसलिए संज्ञानशीलता अपने में संवेदनाओं को पुष्ट करते हुए नियंत्रित रखना बन जाता है। इस विधि से यह सिद्धान्त स्पष्ट होता है कि संज्ञानशीलता पूर्वक ही संवेदनाएँ नियंत्रित होती है। संज्ञानशीलता पूर्वक संवेदनाएँ नियंत्रित रहती है इस तथ्य की पुष्टि संबंधों को पहचानने, निर्वाह करने के रूप में पहचानते हैं। परस्पर मूल्यांकन पूर्वक उभयतृप्ति के रूप में पहचानते हैं। संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति पूर्वक संवेदनाओं में नियंत्रण पाते है। फलस्वरूप स्वधन, स्वनारी-स्वपुरूष, दयापूर्ण कार्य व्यवहार पूर्वक नियंत्रण को पहचानते हैं। तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग, सुरक्षा पूर्वक संवेदनशीलता के नियंत्रण को पहचानते हैं। समाधान, समृद्धिपूर्वक जीने के क्रम में नियंत्रण समझ में आता है। वर्तमान में विश्वास, सहअस्तित्व प्रमाण विधि से संवेदनाएँ नियंत्रित होना पायी जाती है। अखंड समाज विधि से संवेदनाएँ नियंत्रित होना पायी जाती है। सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी करने के रूप में संवेदनाओं का नियंत्रित होना पाया जाता है। परिवार व्यवस्था में भागीदारी करते हुए संवेदनाओं का नियमित होना पाते है। इस विधि से जागृत परम्परा को प्रमाणित करना बन जाता है अतएव सार्थक संवाद इन मुद्दों पर आवश्यक है ही।