अध्याय - 3
व्यवहारात्मक जनवाद का स्वरूप
(मानव व्यवहार)
लक्ष्य दिशा प्रवृत्ति :
हर मानव देशकाल, परिस्थिति भाषाओं से परिसीमित प्रवृत्तियों के साथ ही एक दूसरे से मिलता है। ऐसी परिसीमा में संस्कृति-सभ्यता विधि व्यवस्था का भी संयोजन प्रवृत्तियों में झलकता ही रहता है। हर मानव की प्रवृत्ति में देश, धर्म (या सम्प्रदाय) के आधार पर ही संस्कृति, सभ्यता का स्पष्टीकरण होता हुआ सुनने को आता है। बीसवीं शताब्दी के दसवें दशक में भी ऊपर कहे देश, धर्म, राज्य संबंधी सार्थक-असार्थक, आवश्यक-अनावश्यक, मजबूरी-जरूरी के उद्गारों के रूप में अधिकांश मुद्दों की चर्चा की जाती है। इसी के साथ इस दशक तक यह भी देखा गया है कि परिचर्चा गोष्ठी संगोष्ठियों में सर्वाधिक वर्चस्वी कार्यक्रमों के रूप में शिक्षण प्रशिक्षण शालाओं में आहार विहार के बेलाओं में व्यवहार उत्पादन के कार्यकलापों में जनचर्चा का ताना-बाना बना ही रहता है। आगे और चर्चाओं की विविधता के पक्ष में ध्यान देने पर पता लगता है युद्ध, व्यापार महत्वपूर्ण बिन्दुओं के रूप में रहता ही है। संग्रह सुविधा का बखान भक्ति विरक्ति का गायन कथा ये भी जनमानस में चर्चा का विषय बना रहता हुआ देखने को मिला।
इन सभी प्रकार की चर्चाओं को सुनते हुए आगे जितने भी माध्यमों को देखा उन सब में सर्वाधिक अपराध और श्रृंगारिकता का प्रचार होते आये। ये सब माध्यम कहीं न कहीं रास्ते से भटके है अथवा रास्ता मिला ही नहीं है। मानव इतिहास के अनुसार अभी तक मानवीयता पूर्ण दिशा अथवा मानव सहज दिशा अथवा जनाकांक्षा किसी परम्परा में स्थापित नहीं हो पायी। जनाकांक्षा अथवा मानवाकांक्षा का स्वरूप में निरीक्षण परीक्षण सर्वेक्षण करने पर पता चला कि हर मानव, हर परिवार, हर समुदाय समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व को वरता है। वरने का तात्पर्य सुनने मात्र से ही कोई भूला हुआ चीज को स्मरण में ला लेना और स्वीकार लेने से है। वर लिया है - का तात्पर्य पहले से ही इन आकाँक्षाओं से सम्पन्न रहने से भी है। इस क्रम में आकांक्षा और जनप्रवृत्तियों का निरीक्षण परीक्षण सर्वेक्षण विधि को अपनाने से अंतर्विरोध, विपरीत परिस्थितियाँ होता हुआ देखा गया। इसे हर व्यक्ति परीक्षण कर देख सकता है।