अध्याय - 5
मानव का मूलरूप प्रवृत्तियों के आधार पर
मानव, मानव के साथ जो भी करता रहा उसका व्यवहार नाम हुआ और मानवेतर प्रकृति के साथ जो किया वह सब उत्पादन कार्य कहलाया। व्यवहार व उत्पादन कार्यों का निश्चित, चिन्हित क्षेत्र स्पष्ट हो गया है। जितनी भी समस्याएँ उत्पादन विधा में बनी रही उनका निराकरण उपाय खोजते रहे और मानव की आवश्यकताओं के आधार पर वस्तुओें का निर्माण कार्य किये जैसे आहार, आवास, अलंकार, दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन वस्तुओं का मानव निर्बाध रूप से उत्पादन करने योग्य हो गये। इस क्रम में मानव अपने आश्वस्ति की जगह पहुँचने तक इन प्रौद्योगिकी विधाओं में प्रयुक्त ईंधन से ऊर्जा ग्रहण किये और उसके अवशेष धरती, जल और वायु को प्रदूषित कर दिया। वायु प्रदूषण का प्रबल प्रभाव धरती के वातावरण के शतांश में से तीस अंश को घटा दिया अथवा धरती के जितनी ऊंचाई में वातावरण फैला रहा, उसमें से सौ में से तीस भाग घट गया। यह सब विज्ञान विधा से प्रस्तुत वक्तव्य है। इस विधि से घटित सम्पूर्ण प्रदूषण मानव त्रासदी का प्रधान कारण हो गया है। इसमें से प्रधान कारण ईधन अवशेष ही रहा। इससे अनेक विपदाएँ धरती के सिर पर मँडराने लगी, इसके फल स्वरूप धरती ही ताप ग्रस्त हो गई। धरती का ताप विगत दशक के मध्यकाल तक शान्त रहा अर्थात् पहले जैसा था वैसा ही रहा, अर्धदशक के बाद ताप बढ़ने के संकेत विशेषज्ञों को मिलने लगे। इसी बीच नदी, नाला, तालाब का पानी मानव उपयोगी नहीं रहा। फसल की स्वस्थता के भी प्रतिकूल हुई, फसल भी रोगी हुई। ऐसे प्रदूषित आहार से मानव कुल को अनेक प्रजाति के रोग पीड़ाएँ हो गई। मानव के लिए समुद्र के अतिरिक्त जो क्षेत्रफल है वह कम हुआ। इसी क्रम में धरती पर वन वनस्पतियाँ रही उसका सर्वाधिक शोषण होता ही रहा। आगे चलकर खनिजों के दोहन से धरती असंतुलित होने लगी। यह असंतुलन अपने आप में सर्वाधिक खतरनाक होना पाया जा रहा है।
धरती असंतुलित होने का तात्पर्य धरती पर ऋतुओं का असंतुलन है। ऋतुओं का तात्पर्य शीत, ताप, वर्षा और उसके अनुपात से है। साथ में भूमध्य रेखा से उत्तर-दक्षिण क्षेत्रों में परम्परागत अनुपात से विचलित होने से है। ऐसे असंतुलन को प्रकारान्तर से सभी मानव विभिन्न भाषाओं से संवाद में प्रस्तुत करते रहे।