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अध्याय - 7

व्यवहारवादी कार्यकलाप

मानव व्यवहार अपने सम्पूर्ण रूप में या अपनी सम्पूर्णता के अर्थ में मानव संस्कृति, सभ्यता, विधि, व्यवस्था ही है। मानवीय आचरण संस्कृति, सभ्यता का प्रमाण रूप होना पाया जाता है। मानव संस्कृति स्वधन, स्वनारी-स्वपुरूष, दयापूर्ण कार्य व्यवहार के रूप में प्रमाणित होती है। सभ्यता का स्वरूप, सभ्यता का प्रमाण संबंध, मूल्य, मूल्यांकन, उभयतृप्ति के रूप में होता है। संस्कृति सभ्यता इन दोनों के आधार पर नैतिकता का स्वरूप तन, मन, धन रूपी अर्थ का सदुपयोग और सुरक्षा स्पष्ट हो चुका है। इसके आधार पर मानवीयता पूर्ण आचरण स्पष्ट हो चुका है। इस मुद्दे पर लोक स्वीकृति की आवश्यकता है ही। यह जनचर्चा का मुद्दा है।

मानवीयता पूर्ण आचरण को हर विधा में पहचानने की विधि सहित संविधान मानवीय संविधान है। मानव परम्परा के लिए आचार संहिता की आवश्यकता बनी ही रहती है। मानवीय आचार संहिता को क्रम से स्पष्ट कर लेना ही अपने आप में जनमानस के लिए महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

मानव अपने में बहुमुखी प्रवर्तनशील है ऐसे प्रवर्तन में परिवार व्यवस्था में भागीदारी और समग्र व्यवस्था में भागीदारी प्रधान कार्यकलाप है। आचरणपूर्वक ही हर मानव हर क्रियाकलापों को कृत, कारित, अनुमोदित विधि से कायिक, वाचिक, मानसिक रूप को व्यक्त कर पाते है। परिवार के बिना मानव की पहचान होती नहीं है। हर मानव किसी परिवार का अंगभूत होना पाया जाता है। इसके अलावा कोई पहचान भी नहीं होती है। किसी संस्था में भागीदारी भी परिवार संस्था में भागीदारी है तभी व्यक्ति की पहचान हो पाती है जागृत मानव परम्परा में परिवार की पहचान अपने आप में सम्पूर्ण प्रकार से सम्मान सम्पन्न हो जाती है। क्योंकि हर परिवार में समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व का प्रमाण सदा बना ही रहता है। इससे अधिक उपलब्धि की आवश्यकता नहीं रह गई। यही मानव परम्परा में, से, के लिए परम लक्ष्य और उपलब्धि है। इसी में जीवनाकाँक्षा मानवाकाँक्षा ओत-प्रोत विधि से सफल होना पाया जाता है।

जीवनाकांक्षा के अर्थ में ही संभवत: साधना, अभ्यास, योग, ध्यान आदि को परम्परा में पहचानने का प्रयास किया। इन सारे प्रयासों को प्रयास के रूप में ही देखा गया इसका फलन लोकव्यापीकरण रूप में देखने को नहीं मिला। यदि जीवनाकांक्षा रूपी सुख, शान्ति, संतोष,

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