1.0×

अध्याय - 1

व्यवहरात्मक जनवाद क्यों?

  • मानव भय, प्रलोभन एवं संघर्ष से मुक्ति चाहता है तथा आस्था से विश्वास का प्रमाणीकरण चाहता है।
  • मानव लाभोन्माद, भोगोन्माद से मुक्ति एवं विकल्प का स्पष्टता चाहता है।
  • मानव शासन से मुक्ति एवं व्यवस्था का ध्रुवीकरण चाहता है।

सुदूर विगत से मानव परम्परा भय, प्रलोभन, आस्था, संघर्ष से गुजरती हुई देखने को मिलती है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि सर्वाधिक मानव संघर्ष को नकारते हैं। भय को नकारते हैं। कुछ लोग सोचते हैं, प्रलोभन और आस्था से छुटकारा पाना संभव नहीं है। कुछ लोग यह भी सोचते हैं कि प्रलोभन और आस्था में ही राहत है। कुछ लोगों का सोचना है कि इससे छुटकारा पाना जरूरी तो है, परन्तु रास्ता कोई नहीं है। इन सब स्थितियों में निष्कर्ष यही निकलता है कि भय, प्रलोभन, आस्था और संघर्षो से गुजरते हुए मानव परम्परा का रास्ता; राज्य और राजनैतिक, धर्म और धर्मनैतिक, अर्थ और अर्थनैतिक, शिक्षा-संस्कार सहज वस्तु पद्धतियों का निर्धारण, निष्कर्ष, उसकी सार्वभौमता, सार्थकताओं के अर्थ में देखने को नहीं मिली। इस लम्बे समय की यात्रा में मानव परम्परा में संस्कृति-सभ्यता का, विधि-व्यवस्था का, तथा आचार-संहिता का ध्रुवीकरण एवं निश्चयन नहीं हो पाया। यही जनचर्चा का मुद्दा है। इन सभी मुद्दों पर सार्थकतापूर्ण निश्चयन को जनचर्चा के सूत्र रूप में प्रस्तुत करने के लिए इस ग्रन्थ का उद्घाटन हुआ है। इसमें सर्वशुभ का सारभूत अर्थ समाहित है।

मानव परम्परा में राज्य, धर्म, अर्थ और शिक्षा-संस्कार संबंधी सार्वभौम निष्कर्षों को पाने का प्रयास सदा ही रहा है।

इसकी असफलता का एकमात्र कारण मानव को एक इकाई के रूप में देखने, समझने, अध्ययन क्रम में सजाने, व्यवहार, व्यवस्थागत कार्यकलापों को साकार करने की दिशा में प्रयास नगण्य रहा है। हर समुदाय ने अपनी-अपनी संस्कृति, सभ्यताओं को मान्यताओं के आधार पर स्थापित कर लिया। इसीलिए सभी समुदायों की सांस्कृतिक अस्मिता समानान्तर रूप में प्रवृत्त हुई

Page 1 of 141
-4 -3 -2 -1 1 2 3 4 5