अध्याय - 8
जनचर्चा की आवश्यकता
मानव अपने में कल्पनाशील, कर्मस्वतंत्र होने व बोलने के तरीकों को भाषा स्वरूप दिया हुआ के रूप में प्रमाणित है। हर भाषा में किसी न किसी वस्तु का नाम परस्परता में होने वाली क्रिया-फल-परिणामों का नामकरण हो पाता है। प्रकारान्तर से हर मानव किसी न किसी भाषा में अस्तित्व में ही किसी न किसी वस्तु फल-परिणाम घटना का नाम जानता ही है। उसी के साथ क्रिया प्रक्रियाओं का नाम है सूझ-बूझ का भी नाम है। नाम का उच्चारण ही बन चुका है। साथ में यह भी देखा गया है कि गूंगा भी बातचीत करना चाहता है इसका भी अभ्यास मानव ने कर लिया। इस प्रकार मानव भाषा सम्पन्न है।
भाषा में जितने भी शब्दों को प्रयोजित करते है कारणवादी, गुणवादी, गणितवादी रूप में वर्गीकृत होता है। इसके मूल में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म का नाम समाहित रहता है। मानव मानव की परस्परता में चर्चा संवाद करता है। जिसे सामान्य भाषा में बातचीत कहते हैं। संवाद के बिना आदमी की अभिव्यक्ति अधूरी है। अतएव मानव हर अवस्था से अपने और आगे अवस्था के लिए संवाद आवश्यक है। जागृतिपूर्ण होने के उपरान्त भी उसकी निरन्तरता के लिए संवाद बना ही रहेगा।
जनचर्चा ही शिक्षा-संस्कार का शिलान्यास ∕ वातावरण का सूत्र :
मानव अपनी परस्परता में संवाद विधि से तथ्यों को जानने, मानने, पहचानने के आशय का प्रयोग करता है। सर्वमानव में इसकी आवश्यकता रहती ही है। तथ्य अपने में सहअस्तित्व सहज ही होता है। सहअस्तित्व से मुक्त तथ्य को प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए सहअस्तित्व में पूर्ण तथ्य विद्यमान है। इस विधि से हम मानव तथ्यान्वेषी होना प्रमाणित होते हैं। तथ्य पूर्ण स्वरूप मानव में सहअस्तित्व पूर्ण नजरिया और जागृति का प्रमाण ही है। जागृति का प्रमाण सर्वमानव में स्वीकृत है। सहअस्तित्व पूर्ण नजरिये में ध्रुवीकरण होना शेष रहा इसे मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद ने प्रस्तावित कर दिया है। अध्ययनपूर्वक सुस्पष्ट होने की सम्पूर्ण ज्ञान मीमांसा, कर्म मीमांसा और व्यवस्था मीमांसा को स्पष्ट कर दिया है। सुदूर विगत से ज्ञान मीमांसा, कर्म मीमांसा का पक्षधर रहा है। ये दोनों प्रतिपादन रहस्य से मुक्त नहीं हो पाए हैं। विगत प्रयास के