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अध्याय - 2

अभिनय और उसका परिणाम

साहित्य और कला माध्यमों से समाज की यथास्थिति (समाज का दर्पण) के प्रदर्शन में जो कुछ भी मानव ने किया उसमें सर्वाधिक अपराध और श्रृंगारिकता का वर्णन हुआ। इसी के साथ अच्छाई और सच्चाई जो परिकल्पना में आई, जो परिकथाएँ लिखी गई हैं उन सबका अभिनय ही मंचन के लिए आधार हुआ। जैसे ऐतिहासिक विधि में ईश्वरीयता को एक रस (आनंद) के रूप में जब मंचन किया गया वह भक्ति के रूप में ही मंचित हो पाया। भक्ति को तत्कालीन समय में ईश्वरीयता मान लिया गया। वही भक्ति श्रृंगारिकता की ओर पलता पुष्ट होता गया। उसका परिणाम छायावाद और रहस्यवाद में लुप्त होकर कामोन्मादी प्रवृत्ति उभर आई। इस प्रकार से शुरूआत में विशेष शुभ चाहते हुए उसके लिये किये गये सभी प्रयास श्रृंगारिकता और अपराधों में अन्त होता हुआ इतिहास वार्ताओं में सुनने को मिलता है। इतिहास भी जनचर्चा का एक आधार माना जा रहा है।

उक्त बिन्दु के आधार पर आगे जनमानस की अपेक्षा के सर्वेक्षण में यदि अच्छाई या सच्चाई कुछ है, उसी का विजय, उसी का वैभव होना चाहिए। इस प्रकार के उद्गार चर्चा संवादों में सुनने को मिलता है। आखिर सच्चाई क्या है? हम तत्काल उत्तर विहीन हो जाते है, क्योंकि एक समुदाय जिन रूढ़ियों मान्यताओं को अच्छा मानता है, उनको दूसरा समुदाय बुरा मानता है। सच्चाई के मुद्दे पर यही अभी तक सुनने को मिला है, सत्य अवर्णनीय है। वाणी से, मन से इसे प्रगट नहीं किया जा सकता है। फिर हम सच्चाई के पक्षधर क्यों है? मानव अपने आप में जितने भी सतह में व्यवस्थित है, उन किसी सतह में सत्य स्वीकृत होना पाया जाता है। इसको ऐसा कहना भी बनता है मानव सहज रूप में ही नियम, न्याय, व्यवस्था, सत्य, व्यापक, अनंत को नाम से या अर्थ से स्वीकार किया ही रहता है। हमारे अभी तक के सर्वेक्षण से यह पता लगा है, नाम से हर व्यक्ति स्वीकृत है। अर्थ से सम्पन्न होना प्रतीक्षित है।

साहित्य कला क्रम में आनन्द रूपी रस को सम्प्रेषित करने के उद्देश्य से प्रयासोदय होने का उल्लेख है। अंततोगत्वा यह रहस्य में अन्त होकर रह गये क्योंकि आनन्द एक रहस्य ही रहा। इसमें आनन्दित होने वाला, आनन्द का स्त्रोत, संयोग विधियाँ मानव के समझदारी का अभी

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