अन्य जागृत पविार के सदस्य हैं, सुगम हो जाता है इसे भली प्रकार से समझ चुके है। इसलिए विश्वास करते हैं कि हर मानव इसे समझते हुए अपने कार्य व्यवहारों को जागृति की कड़ी से जोड़ने का प्रयास एवं प्रमाण अवश्य ही करेंगे।
भ्रमित संसार में भी हर व्यक्ति एक दूसरे की नसजाल को जानते ही हैं अथवा हर बात को पहचानते रहते है। भ्रमित मानव परिवार में हर व्यक्ति एक दूसरे के दोषों को भी पहचाने रहते हैं। ऐसे पहचानने के आधार पर एक दूसरे के प्रति विश्वास पूर्ण विधि नहीं बन पाती है। एक छत के तले अवश्य ही रहते है। इस दूभरता में घुटन बनी ही रहती है। परस्परता में अविश्वास बढ़ता जाता है। अविश्वास के कारण अपने अधिकारों को वस्तु केन्द्रित किये जाना एक विवशता बन जाती है। ऐसी विवशता एक दूसरे के बीच खाई का काम करती है। फलस्वरूप असंतुष्टि का विस्तार होता ही जाता है। जितना ज्यादा असंतुष्टि का विस्तार होता है उतना ही ज्यादा संग्रह सुविधा पर स्वामित्व को पाने का प्रयत्न होना पाया जाता है। फलस्वरूप व्यक्तिवादिता उभर जाती है। परिवार में सुखी होने के लिए जीने की शुरूआत करते है। इसके विपरीत व्यक्तिवादिता में पहुँच जाते है यही संपूर्ण समस्या का कारण है।
भ्रमवश अकेलापन सदा विरोध अथवा भय के स्वरूप में ही गण्य होता है। अकेलेपन से मुक्ति तभी हो पाती है जब परस्परता में विश्वास हो। कहीं न कहीं मानव अतिरिक्त विश्वास के लिए तड़पता है चाहे जीव जानवर के साथ ही क्यों न हो। इसकी कोई चिन्हित पहचान नहीं हो पाती है इसलिए बारंबार विश्वास का आधार बदलता है। और बदलते बदलते थकना भी कहीं हो जाता है। पुन: किसी अज्ञात व्यक्ति के साथ विश्वास सूत्र को जोड़ने का प्रयास भी करता है। मानव अपने में विरक्ति और भक्ति की मान्यता से साधनारत होना पाया जाता है। इसे कहीं अपने में संतुष्टि पाने के लिए साधना, अभ्यास, योग, चिन्तन, गायन, प्रार्थना, विलपने के क्रम में गुजर जाता है। गुजरते-गुजरते थक जाना भी होता है। कोई आशित घटना अर्थात् मनोकामना सफल होने की स्थिति में सिद्धि हो गया है मान लेते है। न होने की स्थिति में ज्ञान हो गया मान लेते है। पुन: सर्वाधिक ऐसे साधक किसी मानव के साथ अपनी पहचान को स्थापित करने में प्रयत्नशील होते हैं। ऐसे प्रयास में कोई-कोई काफी भीड़ इकट्ठा करने में सफल हो जाते है, जितना बड़ा भीड़ उतना बड़ा सिद्ध अथवा ज्ञानी माने जाते है। ऐसे ज्ञानी और सिद्धों की सूची बड़ी होते हुए भी मानव परम्परा भ्रमजाल में यथावत बनी हुई ही है। क्योंकि सर्वमानव में समझदारी सुलभ हुई नहीं है। मानव लक्ष्य जीवन लक्ष्य का प्रमाण लोकव्यापीकरण हुआ नहीं है। यही मुख्य मुद्दा है