समझदार होने की अभीप्सा प्रमाणित होना सहज है। इसकी आवश्यकता प्राचीनकाल से ही रही है। मानव अपने को सदा से ही अपनी पहचान बनाने के क्रम में प्रमाणित है ही। यह प्रमाण भले ही सार्वभौम न हुआ हो, यह विचारणीय मुद्दा तो है ही। साथ में हर समुदाय में हर मानव श्रेष्ठता के अर्थ में प्रयत्नशील रहे आया इसी का देन है। हम मानव मनाकार को साकार करने में सार्थक हो गये है। इसी के साथ में मन:स्वस्थता की पीड़ा बलवती हुई है। इसी आधार पर अनुसंधान, शोध स्वाभाविक रहा। मानव में समस्या की पीड़ा होना स्पष्ट है अर्थात् पीड़ा स्वयं भ्रम का ही प्रकाशन है। भ्रमित मानव समस्या के रूप में प्रकाशित होना पाया जाता है। जब तक शिक्षा परम्परा भ्रमित हो, राज्य और धर्म परंपरा भ्रमित हो, ऐसी स्थिति में शोध की दिशा और लक्ष्य समझ में आना काफी जटिल होता है। इसके बावजूद पीड़ा की किसी पराकाष्ठा में अज्ञात को ज्ञात करने का लक्ष्य बन गया। इसके लिये अनुमान से ही दिशा को निर्धारित किया गया। इसी क्रम में मध्यस्थ दर्शन और सहअस्तित्ववादी उपलब्धि मानव के सम्मुख प्रस्तुत हो गया। यह मानव की ही आवश्यकता रही इसीलिये यह घटना घटित हो गई।
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