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मानव के भ्रमित रहने का मूल कारण परम्परा जागृत न रहना ही है। परम्परा का स्वरूप प्रधान रूप में शिक्षा-संस्कार, राज्य व्यवस्था, धर्म व्यवस्था है। हर मानव का आचरण परम्परा के अनुसार ही रहा है। परम्पराएं किसी न किसी अंतिम मान्यता अथवा मान्यता के आधार पर ही होना स्पष्ट है। सन् 2000 तक में सभी समुदाय परम्पराएं अपने-अपने ढंग की मान्यताओं के अनुसार आचरण को स्वीकारा है। हर समुदाय की मान्यता अपने आचरणों को श्रेष्ठ मानते ही आयी है। श्रेष्ठता का ध्रुव बिन्दु सर्व स्वीकृति के रूप में तैयार नहीं हो पाया। ऐसे ध्रुव बिन्दु के अर्थ में ध्रुव बिन्दु को पहचानना, समझना, व्यवहार में प्रमाणित करना जन चर्चा का एक प्रधान मुद्दा रहा।

जनचर्चा में अभी भी इन बातों पर कभी कभी चर्चाएं हुआ करती है, इसका निष्कर्ष यही सुनने में आता है, पाँच उँगलियाँ एक सी नहीं होती है, सभी झाड़ एक से नहीं होते इसलिए अपने अपने ढंग से आचरण रहेगा ही। इसी को मानव में विविधता के अर्थ में स्वीकारा गया है साथ में यह भी चर्चा में आता है कि विविधता में एकता का पहचान जरूरी है। ऐसे संवाद आगे बढ़कर राज्य और संविधान के पास हो जाते है। राज्य संविधान सबको समान रूप में स्वीकार्य है। इसी को एकता के रुप में पहचानने का मूल तथ्य माना गया है। इसी बीच संविधान में प्रावधानित सभी धर्मों के प्रति एक रवैया को धर्म निरपेक्षता का नाम भी दिया। ऐसे मान्यताओं पर आधारित संविधान के तले जीता हुआ हर सामान्य मानव में किसी न किसी समुदाय चेतना स्वीकृति, प्रतिबद्धता को सर्वाधिक प्रभावशाली देखा गया है न कि संविधान में प्रावधानित मानसिकता को। इस क्रम में अनेकता में पहचानी गई एकता खतरनाक होना देखा गया है। यह सर्वाधिक लोगों को विदित है निष्कर्ष यह निकला कि अनेकता में एकता का सूत्र रहता नहीं है यदि रहता है तो वह अति प्रच्छन्न होना देखा गया है। मानव परम्परा में मानवीयता ही एक मात्र एकता का सूत्र है। यह सूत्र अभी तक शरमालू रहता ही आया। शरमालू रहने का तात्पर्य हर समुदाय अपने को सही मानने के आधार पर मानवीयता का सूत्र अनुसंधान, शोध विधि से दूर रहता आया। उल्लेखनीय तथ्य यही है कि हर समुदाय अपने को मानव, मानव धर्म कहना पड़ा। यह भी इसके साथ मान्यतायें बलवती रही जो जिस धर्म परम्परा के होते है उसका कोई नाम स्थापित हुआ, प्रचलित हुआ। उस प्रचलित नाम के आधार पर समुदाय अपने को सर्वश्रेष्ठ मानव समझा। इसीलिए इसमें जो प्रतिबद्धताएँ है कट्टरता को छूती रही। इसको स्पष्ट कहा जाये, हर समुदाय अन्य समुदायों के साथ मतभेद अथवा घृणा, उपेक्षा जैसे नजरियों को अपनाते आये हैं। सब रवैये मानव लक्ष्य और दिशा को अनदेखी में रखता ही रहा। फलत: मानवीयता का शोध,

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