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वस्तु ज्ञान के साथ संयोजन ज्ञान हुआ रहता है। संयोजन ज्ञान के साथ परिणाम एवं प्रयोजन ज्ञान हुआ रहता है। इन सभी आधारों के साथ निर्णय होना सहज रहता है। इसकी औचित्यता को लक्ष्य के आधार पर परिशीलन करना विवेक विधि से सम्पन्न हो जाता है। विवेक विधि का उदय सहअस्तित्व ज्ञान से सम्पन्न हुआ रहता है। विवेक विधि से सहअस्तित्व का नजरिया सुस्पष्ट रहता है। सहअस्तित्व के नजरिया में समाधान, समृद्धि, अभयता का स्वरूप समाया रहता है। अतएव इन लक्ष्यों के अर्थ में संश्लेषण होना एक स्वाभाविक क्रिया है। इसी के चलते लक्ष्य सम्मत दिशा निर्धारित हो जाती है। ऐसे निर्णयों के आधार पर योजना, कार्य योजना स्वीकार होती है। ऐसे स्वीकारने के आधार पर प्रतिबद्धता में निष्ठा होना पाया जाता है। इस विधि से हम जीकर प्रमाणित होने की स्थिति में पहुँचते है। इसकी आवश्यकता, जनसंवाद, परामर्श एक आवश्यकीय कार्यकलाप है। सहअस्तित्व विधि अपने आप सार्वभौम होना स्वाभाविक है। सहअस्तित्व अपने में सम्पूर्ण अस्तित्व की ध्वनि को ध्वनित करता है। सम्पूर्ण अस्तित्व अपने में चार पद, चार अवस्थाओं में होना पाया जाता है। इसमें से चार पद प्राणपद, भ्रान्तिपद, देवपद, दिव्यपद के रूप में अध्ययन होता है। चार अवस्थाएँ पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था, ज्ञानावस्था में गण्य होती है। ऐसी स्वीकृतियाँ बहुत जटिल भी नहीं है। पदार्थावस्था के मूल में सम्पूर्ण प्रजाति के परमाणुओं का अध्ययन है। इनमें से कुछ प्रजातियाँ को मानव पहचाना भी है। नहीं पहचानी हुई प्रजातियाँ पहचान में आने की सम्भावना बनी हुई है। इस मुद्दे पर पहले भी जिक्र हुआ है कितनी प्रजाति के परमाणु होना संभावित है यह स्पष्ट किया जा चुका है। भौतिक परमाणुएँ 120 या 121 संख्या में होने की बात सूचित हो चुकी है इनमें से 60 भूखे परमाणु के कोटि में, अन्य अजीर्ण कोटि में गण्य है। चैतन्य परमाणु अपने में एक ही प्रजाति का होता है। चैतन्य इकाई की प्रजाति एक होते हुए भी जीने की आशा के आधार पर अपने में स्वयंस्फूर्त कार्य गति पथ भिन्न-भिन्न आकार का होता है यह पूंजाकार ही होता है। पूंजाकार का तात्पर्य एक अलात चक्र अनुभव किया जाता है। अलात चक्र का तात्पर्य रस्सी के एक छोर में आग लगाकर घुमाने से आंखों से सभी ओर आग दिखाई देती है जबकि आग रस्सी के एक छोर में ही रहती है। पंखा जब घूमने लगता है एक गोलाकार चक्र जैसा दिखता है जीवन परमाणु अपने में गठनपूर्ण होते हुए संख्या में एक होता है। यही आशा की गति में गतित होना पाया जाता है। उस गति को मानव संख्या में लाना संभव नहीं है इसी आधार पर जीवन गति अन्य सभी गति को नाप तौल के रूप में परिगणित कर लेता है। कार्य गति पथ सहित जीवन अपने में एक आकार प्रकार हो जाता है इस आकार प्रकार का शरीर रचना किसी अण्डज-पिण्डज संसार में बना ही

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