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रहता है। जीवन जीने की आशा सहित होने के आधार पर शरीर को जीवन माना रहता है। मानव परम्परा में ऐसी शरीर रचना रचित हो चुकी है जिसको चलाने के क्रम में जागृति की आवश्यकता महसूस होना और प्रमाणित होना है। इसी तथ्य वश मध्यस्थ दर्शन सहअस्तित्ववाद तथ्य उद्घाटन करने के लिए प्रस्तुत हुआ। यह जनचर्चा के लिए महत्वपूर्ण है। जीवन और शरीर के संयुक्त रूप में मानव होना पाया गया है। शरीर के साथ जीवन न होने की स्थिति में मृतक माना जाता है। संवेदनशीलता, संग्रह सुविधा हर हालत में कुंठा ग्रस्त होने का आधार है। इसी की अनुकूलता प्रतिकूलता के चलते द्रोह, विद्रोह, शोषण, युद्ध तक मानव जाति अपना कुनबा जोड़ लिया है। इससे त्रस्त होना स्वाभाविक है। इस आधार पर जागृति की आवश्यकता बलवती होती गई। इस मुद्दे पर भी हाँ-ना के अर्थ में जनसंवाद की आवश्यकता है। जागृति विधि से मानव परम्परा में व्यवस्था में जीने का ही कार्यक्रम बनाता है। व्यवस्था में जीने का ही फलन है समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व सहज प्रमाण। इसी से सुख, शान्ति, संतोष, आनन्दपूर्वक जीना बन जाता है। यही मानव का सर्वकालीन उद्देश्य है अथवा निरन्तर उद्देश्य है। इन उद्देश्यों को प्रमाणित करने के रूप में जीना ही जागृति पूर्वक जीने का प्रमाण है। इस विधि से जितने प्रकार की समस्याएँ हैं मानव द्वारा निर्मित वह सब समाप्त होना समीचीन है इस मुद्दे पर भी मानव अपनी संवाद विधि को आगे बढ़ा सकता है।

जागृति पूर्वक जीने में समझदारी व्यवस्था और मानव लक्ष्य को प्रमाणित करना ही कार्यक्रम के रूप में निर्धारित होता है। मानव लक्ष्य अपने आप में स्पष्ट हो चुका है। ऐसे लक्ष्य को प्रमाणित करती हुई मानव परम्परा जागृत मानव परम्परा में होना पायी जाती है। ऐसी स्थिति में मानवीय शिक्षा-संस्कार का प्रबल प्रमाण परम्परा में बना ही रहता है। मानवीय शिक्षा में मानव का अध्ययन पूरा हो जाता है। मानव के अध्ययन में शरीर और जीवन ही है। इसके कारण रूप में समग्र अस्तित्व ही है। समग्र अस्तित्व में पूरक विधि से जीवन का होना और भौतिक रासायनिक वस्तुओं की रचना विधि से मानव शरीर का भी रचना होना वर्तमान है। शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में मानव अपने कार्यकलापों को करता हुआ, जीता हुआ, अपनी पहचान बनाने के लिए यत्न प्रयत्न करता हुआ देखने को मिलना स्वाभाविक है। जागृत परम्परा में शिक्षा में सम्पूर्ण अस्तित्व का अध्ययन एक मौलिक विधा है। पूरकता विधि से एक दूसरे की यथास्थितियों का वैभव समझ में आता है। इसी क्रम में हर पद और अवस्था की यथास्थितियाँ अध्ययनगम्य हो जाती है। अध्ययनगम्य होने का तात्पर्य सहअस्तित्व में होने के रूप में स्वीकृत होने से है। अस्तित्व में जो कुछ होता है, जो कुछ है उसी का अध्ययन है। अस्तित्व में जितनी भी विविधता

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