आत्मा अनुभवाभ्यासी, बुद्धि बोधाभ्यासी, चित्त चिन्तनाभ्यासी, वृत्ति तुलनाभ्यासी और मन आस्वादनाभ्यासी है । ज्ञानावस्था की इकाई अतिमानवीयतापूर्ण, मानवीयतापूर्ण एवं अमानवीयतावादी आचरण को अपने जागृति के स्तर के अनुरूप प्रकट करती है ।
सान्निध्यानुभूति पर्यन्त सतर्कता क्रियाशील है । अनुभूति ही सजगता है जिसकी निरंतरता है ।
सम-विषम आवेश को मध्यस्थ क्रिया ही आत्मसात करती है अर्थात् सामान्य करती है।
अभाव, रोग, संशकता एवं संदिग्धात्मक स्थितियाँ, अविवेक, अत्याशा, आलस्य, प्रमाद सहित संग्रह, द्वेष, अविद्या, अभिमान और भयात्मक मूल प्रवृत्तियाँ सभी क्लेशों का कारण है, जिनका निराकरण विवेक व विज्ञानपूर्ण ज्ञान का प्रयोग तथा अभ्यास ही है । सत्कर्म (विकासानुकूल) में प्रवृत्ति हेतु आप्तों का उपदेश है ।
क्लेश व हर्ष कर्म-परिपाकवश ही भासित होते हैं ।
ब्रह्मानुभूति योग्य अधिकार पाना ही चित्त शुद्धि है । यही चैतन्य क्रिया का चिरंतन कार्यक्रम है ।
ज्ञानावस्था में सभी मानव का आद्यान्त ईष्ट ब्रह्मानुभूति ही है । अतएव मानव द्वारा मात्र उसी के अनुकूल व्यवसाय, व्यवहार, विचार, विधि-व्यवस्था, अध्ययन, शिक्षा-प्रणाली, विनिमय और उपयोग प्रणाली का प्रणयन एवं उन्नयन तथा पालन अनुसरण ही सर्व मंगलमय कार्यक्रम है ।
“नित्यम् यातु शुभोदयम्”