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सृष्टि में पाए जाने वाले तिरोभाव, भाव, अभाव, परिणाम, परिपाक संबंध, ज्ञान योग्य क्षमता, योग्यता, पात्रता की अपूर्णता ही माया है ।

वातावरणस्थ वस्तुस्थिति संकेत ग्रहण योग्यता, व्यापक में स्थिति ज्ञान क्षमता, इकाई के जागृति पर आधारित है । ऐसी क्षमता की अपूर्णता तक वैविध्यता है । फलतः अमानवीयता का अभाव नहीं है ।

अभिव्यंजना की पूर्ण ग्रहण क्रिया या वस्तुस्थितिवत्ता की पूर्ण स्वीकृति ही अनुभूति है।

प्रकृति ब्रह्म में संपृक्त है । प्रकृति के अपेक्षाकृत विकास के आधार पर अधिक विकसित की अभिव्यंजना (अभिप्राय सहित व्यंजना) और कम विकसित की व्यंजना प्रसिद्ध है । अभिव्यंजना में गुणात्मक विकास का संकेत, व्यंजना में उपयोगिता का संकेत है । अभ्युदय प्रायः (अभ्युदय जैसा) ही अभिप्राय है जिसमें अभ्युदय का भास या आभास होना आवश्यक है ।

हर परिणाम अपने में एक यथास्थिति होने-रहने से मानव जागृत अवस्था में सृष्टि की नित्यता एवं परिणामशीलता का, स्वप्नावस्था अनिश्चित कल्पना में उसकी अनित्यता एवं क्षण भंगुरता का, सुषुप्ति में स्वयं की जड़ता का भास-आभास एवं अनुमान करता है । इसी का परिणाम है कि ये सब अनुभूति के लिए त्वरण की भूमिका का निर्वहन करते हैं । निद्रा जड़ शरीर की आवश्यकता है, न कि चैतन्य क्रिया की आवश्यकता ।

संपूर्ण प्रकृति ब्रह्म में अनुप्राणित होना-रहना पाई जाती है । अस्तु, उसकी अनुभूति योग्य क्षमता, योग्यता, पात्रता से संपन्न होने तक आनंद की निरंतरता नहीं है । उसके लिए मानवीयता पूर्ण व्यवहार का अनुकरण, अनुसरण तथा अतिमानवीयता योग्य अभ्यास ही एक मात्र उपाय है ।

संवेदन क्रिया ही क्रिया के साथ आस्वादन, सान्निध्य और संघर्ष की स्थिति में है । आस्वादन की क्षण भंगुरता, सान्निध्य में प्रेरणा, संघर्ष की असहनीयता प्रसिद्ध है ।

सृष्टि की सम-विषमात्मक क्रिया में आवेश का अभाव नहीं है ।

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