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“मैं हूँ” का प्रकटन ज्ञानावस्था में विचार पूर्वक व्यवहार व विहार के रूप में, “होने” का प्रकटन जीवावस्था में आशा पूर्वक विहार के रूप में, प्राणावस्था में रचनापूर्वक आस्वादन के रूप में, पदार्थावस्था में गठन पूर्वक गति के रूप में दृष्टव्य है ।

सत्तात्मक अस्तित्व और दृश्यात्मक अस्तित्व प्रसिद्ध है ।

सत्ता में प्रकृति दृश्यात्मक अस्तित्व के रूप में है और सत्तात्मक अस्तित्व पूर्ण है । पूर्ण का खंडन-विखंडन नहीं है । यदि खंडन-विखंडन है तो वह पूर्ण नहीं है । खंड की सीमा, परिणाम, दिशा और क्रिया है । काल, विकास और ह्रास भी परिणाम है । परिणाम ही इकाईत्व है । यही संख्या और समूह है । सम्यक् प्रकार से ख्यात होना ही संख्या है । अपूर्णता ही सीमा, सीमा ही इकाईत्व, इकाईत्व ही संख्या, संख्या ही अस्तित्वशीलता, अस्तित्वशीलता ही क्रिया, क्रिया ही परिणाम, परिणाम ही सापेक्षता, सापेक्षता ही विकास एवं ह्रास, विकास ही गठन पूर्णता, गठन पूर्णता ही अमरत्व, क्रिया पूर्णता व आचरण पूर्णता ही सतर्कता व सजगता, सतर्कता व सजगता ही दर्शन क्षमता, दर्शन क्षमता ही पूर्णानुभूति और पूर्णानुभूति ही इकाईत्व का विश्लेषण है । गठनपूर्णता ही चैतन्यता व अमरत्व, सामाजिकता ही सतर्कता एवं सहअस्तित्व अनुभूति ही सजगता एवं पूर्ण विश्राम है ।

अस्तित्व पूर्ण सत्ता में प्रकृति की स्वीकृति = सत्याभास

अस्तित्व की आंशिकता की स्पष्ट स्वीकृति = आभास

अस्तित्व स्पष्टता तथा प्रयोजन सहित स्वीकृति = प्रतीति

अस्तित्व संपूर्णता में, से, के लिए पूर्ण स्वीकृति = अनुभव

वस्तुगत सत्यता सहज उद्घाटन क्रिया-प्रक्रिया एवं प्रणाली ही प्रयोग अखण्ड सामाजिकता का आचरण-अनुसरण एवं अनुशीलन ही व्यवहार, समाधान एवं अनुभूति निरंतरता हेतु किया गया प्रयास, पद्धति एवं प्रणाली ही अभ्यास है । उपयोगिता, उपादेयता एवं अनिवार्यता देश-काल-अधिकार व उपलब्धि की अपेक्षा में निर्णीत है । प्रकृति के विकास की श्रृंखला में पाए जाने वाले अंतिम ह्रास तथा विकास का दर्शन स्पष्ट होना, साथ ही उसमें

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