सम-विषम-मध्यस्थ में, मध्यस्थ क्रिया व्यापक सत्ता में अनुभव पूर्वक समाधानित, संतुष्ट एवं आप्लावित है । इसी प्रकार अमानवीयता मानवीयता में, मानवीयता अतिमानवीयता में क्रम से तृप्त, संतृप्त और अतिसंतृप्त है ।
रहस्यता से अज्ञान, अज्ञान से भ्रम, भ्रम से मोह, मोह से अक्षमता, अक्षमता से अमानवीयता और अमानवीयता से ही रहस्यता है ।
यथार्थ की सहज अनुभूति योग्य क्षमता, योग्यता एवं पात्रता को पा लेना प्रमाणित रहना ही जागृति है यही निर्भ्रमता है ।
क्रिया का अभाव नहीं है ,इसलिए जागृति का अभाव नहीं है ।
लक्ष्य के बिना जागृति नहीं है ।
लक्ष्य, विश्राम ही है ।
वह केवल सत्य में ज्ञान एवं अनुभव है ।
मानव जीवन सहज लक्ष्य सुख, शान्ति, संतोष तथा आनंद ही है ।
रूप और गुण के योगफल में विषम; रूप-गुण-स्वभाव के योगफल में सम; रूप-गुण-स्वभाव-धर्म के योगफल में मध्यस्थ प्रतिष्ठा है । यही प्रकृति की संपूर्ण प्रतिष्ठा है । यही रासायनिक एवं भौतिक सीमा में उद्भव, विभव, प्रलय को तथा चैतन्य अवस्था में गठन पूर्णता, क्रिया पूर्णता और आचरण पूर्णता को सिद्ध किया है ।
इकाई रूप-गुण-स्वभाव एवं धर्म के योगफल में ही स्थापित संबंधों में निहित स्थापित मूल्यों का अनुभव करता है । यही सामाजिकता का परिणाम एवं पूर्ण सतर्कता है । इस क्षमता से परिपूर्ण होते तक मानव में गुणात्मक परिवर्तन परिमार्जन भावी है ।
अनुभव सत्य में है । अनुभव में संदिग्धता नहीं है । संदिग्धता पर्यन्त अनुभव नहीं है । संदिग्धता पर्यन्त परिवर्तन, परिमार्जन भावी है । यही नियति क्रम है ।