फलस्वरुप बारंबार टकराव की मुद्राएँ-घटनाएँ देखने को मिलती रही। जबकि अधिकांश मानव वाद-विवाद, झंझटों को नहीं चाहते हैं। परिस्थितियाँ इन तमाम घटनाओं के लिए बाध्य करती रहीं। कोई एक परम्परा अपनाया हुआ राज्य और धर्म अस्मिताएँ, टकराव की स्थिति निर्मित करती रहीं। उसी के साथ साथ अन्य समुदायों का उलझना एक बाध्यता बनती रही है। इसी उलझन से सामरिक अस्मिता सर्वाधिक रूप में पुष्ट हुई। इसी के पक्ष में कोई भयभीत होकर, कोई प्रलोभित होकर इस घटना प्रवाह में भागीदार बनने के लिए इच्छा रखते रहे, और भागीदार होते भी रहे। इसका साक्ष्य यही है कि सामरिक कार्यकलाप में भागीदारी करने के लिए बहुत सारी प्रतिभाएँ उम्मीदवार होती ही हैं तथा भागीदारी निर्वाह करती ही हैं यह सर्वजन विदित तथ्य है। जनचर्चा में भी सामरिक वार्ताओं को प्रदर्शन-प्रकाशन के माध्यम से रोमांचक विधि से प्रस्तुत किया जाता है। ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी सामरिक प्रवृत्ति स्वीकृत होती रहे, पुष्टित होती रहे। उल्लेखनीय है कि अधिकांश मानव युद्ध न चाहते हुए भी युद्ध वार्ता-चर्चा में उत्साहित होकर भाग लेते हैं। मानव में यह एक अन्तर्विरोधी विन्यास है। इसी प्रकार अन्तर्विरोधी मुद्दे के रूप में शोषण को कोई नहीं चाहता है, फिर भी अधिकांश जनमानस व्यापार चर्चा व लाभवादी विधाओं से उत्साहित होते हुए देखने को मिलते हैं।
इस बात से हर व्यक्ति सहमत होता है कि वह मानव ही है। किन्तु अपना परिचय वह किसी वर्ग या समुदायिक पहचान के साथ ही देता है। यह भी अन्तर्विरोध का जीता जागता उदाहरण है। आमजन मानसिकता के गति, कार्य वार्तालाप के क्रम में यह भी देखने को मिलता है कि सर्व शुभ होने का कार्य राज्य, धर्म और शिक्षा में होना चाहिए। जबकि इन तीनों विधाओं में विशेष और सामान्य का प्रभेद बना ही है। (विशेष और सामान्य का तात्पर्य विद्वान-मूर्ख, ज्ञानी-अज्ञानी, बली-दुर्बली, धनी-निर्धनी के रूप में मान्यता है)। यह विशेषकर समुदायगत अन्तर्विरोध के रूप में देखने को मिलता है। जनचर्चा में यह भी सुनने को आता है कि शिक्षा-संस्कार आदि चारों परम्परा (शिक्षा संस्कार, राज्य, धर्म, व्यापार व्यवस्था) ठीक है और इस बात को स्वीकारा जाता है। परम्परा सहज विधि से हर मानव संतान किसी न किसी परिवार में समर्पित रहता ही है। जिसके फलस्वरुप परिवार के रूढ़िगत, स्वीकृत खान-पान, बोली, भाषा, रहन-सहन और व्यवहार मर्यादाओं को यथा संभव हर शिशु ग्रहण करता ही रहता है। इसके कुछ दिनों बाद किसी शिक्षण संस्था में भाई-बहनों, मित्रों-गुरुजनों के बीच जो कुछ भी सीखने को, सुनने को, समझने को, पढ़ने को मिलता है इन सबको हर बालक अथवा हर विद्यार्थी अपनी ग्रहणशीलता सहज विधि से ग्रहण करते हैं। युवा अवस्था को पार करते-करते किसी न