किसी धर्मगद्दी, धर्मप्रणाली, धार्मिक रूढ़ियों को स्वीकार लेते हैं। इसी के साथ-साथ किसी न किसी देश, राष्ट्र, संविधान और भाषा, जाति चेतना सहित अपनी पहचान को सजाने के लिये हर युवा और प्रौढ़ व्यक्ति यत्न-प्रयत्न करते ही हैं। इसके उपरान्त इस अवस्था तक जो कुछ भी स्वीकारा रहता है उसके प्रति अपनी निष्ठा को जोड़ते हैं। जिन-जिन मुद्दों को स्वीकारे नहीं रहते है उसमें उनकी निष्ठाएँ अर्पित नहीं हो पाती है। इसी कारणवश हर समुदाय में पीढ़ी दर पीढ़ी परिवर्तन की दिशा बनती रहती है। यही मानव परम्परा की विशेषता है। भौतिकता प्रधान दृष्टिकोण से, भोगवादी दृष्टि से मानव को भले ही जीव जानवर कहते हों, किंवा कह रहे हैं इसके बावजूद तथ्य यही है कि जानवरों में यथावत पिछली पीढ़ी के सदृश्य ही अगली पीढ़ी के कार्य-कलाप और प्रवृत्तियाँ देखने को मिलती हैं। जबकि मानव परंपरा में पीढ़ी से पीढ़ी में भिन्नताएँ व्यक्त होती ही रही हैं तथा विचार, कार्य, व्यवहार, सुविधा, संग्रह, उपभोग, बहुभोग आदि विधाओं में भी परिवर्तन होता ही आ रहा है। इसकी समीक्षा में पीढ़ी से पीढ़ी अधिकाधिक सुविधा संग्रह में प्रवर्तित होना देखा गया है। कट्टरवादिता अंधविश्वास और अन्य अर्थविहीन रूढ़ियों के प्रति पुनर्विचार करने के लिए प्रवृत्तियाँ अधिकाधिक लोगों में उदय होती हुई देखने को मिलती हैं। इन्हीं तथ्यों से पता चलता है कि मानव जीव जानवरों से भिन्न है। भिन्नता का मूल स्त्रोत सर्व मानव में प्रकाशित कल्पनाशीलता, कर्मस्वतंत्रता ही है। विगत घटनाओं की स्मृतियों श्रुतियों के आधार पर हर व्यक्ति अपनी कल्पनाओं को दौड़ाने में समर्थ है ही, इसी क्रम में मानव हर घटना के साथ उचित अनुचित को समझने, औचित्यता के प्रति सकारात्मक रवैया अपनाने, अनुचित के साथ नकारात्मक रवैया अपनाने के लिए अपनी कर्मस्वतंत्रता का प्रयोग करता ही है। यह सर्व मानव में सर्वविदित तथ्य है।
इस धरती पर आदिकालीन मानव का भिन्न जलवायु में शरीर यात्रा आरंभ होना, सुस्पष्ट हो चुका है। विभिन्न जलवायु में पले विभिन्न रंग रूप के होने के कारण मानव से मानव की रूप रंग की विषमता, उसी के साथ भाषा की विषमता के संयोग से विरोधों का प्रदर्शन, असंख्य हिंसाओं के रूप में साक्षित है। प्राकृतिक भय, पशुभय, मानव में निहित अमानवीयता (हिंसा, शोषण, द्रोह, विद्रोह प्रवृत्ति) का भय अर्थात् अथ से इति तक भय के विभिन्न स्वरूपों को परिलक्षित किया गया है और हर व्यक्ति इन्हें परिलक्षित कर सकता है।
भिन्न-भिन्न मानव कुल और परम्पराओं का विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में आरंभ होना एक नियति सहज विधि है। इसी आधार पर ही भिन्न-भिन्न मानसिकता का होना स्वयं साक्षित है।