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धरती के पेट को क्षत-विक्षत करने का आकर्षण, आवश्यकता अथवा विवशताएँ खनिज तेल, खनिज कोयला के रूप में होना देखा गया है। इन दोनों वस्तुओं के संबंध में भूगर्भ सर्वेक्षण से जितना पता लगा चुके हैं उसमें विज्ञान जनचर्चा के अनुसार 50-60 वर्षों तक का खनिज तेल एवं 150-200 वर्षों तक खनिज कोयला की आपूर्ति होना बताया जा रहा है। लोहा पत्थर से समउन्नत कई पहाड़ धरती की सतह तक पहुँच कर मैदान हो चुके है। विकिरणीय धातु और सोना जैसे धातु के लिये भी धरती का पेट फाड़ा जा रहा है। इन सब क्रियाकलापों में सर्वाधिक प्रयोजन सुविधा संग्रह है - यह भोग के लिये ही है। ये सभी तथ्य बीती जा रही कृत्यों के साथ जुड़ी हुई जनचर्चा के रूप में सुनी जा रही है। यह भी जनचर्चा में सुनने में आ रहा है कि धरती बिगड़ती जा रही है। विज्ञान संसार के कुछ ईमानदार लोग यह सोचने लगे है कि यह धरती ज्यादा दिन चलने वाली नहीं हैं। विज्ञानियों में दो मत रहे है। उनमें से एक मत के अनुसार जो कुछ भी है वह व्यवस्थित है ऐसा मानते हुए सारे यांत्रिक क्रियाकलापों की कल्पना करते रहे। दूसरा मत इसके बिल्कुल उल्टा बताते रहते हैं - व्यवस्था से अव्यवस्था की ओर। तीसरा यह भी बता सकते है - (अभी तक बताए नहीं है) - अव्यवस्था से अव्यवस्था की ओर।

अभी तक जो कुछ भी विज्ञान तंत्र है हर व्यक्ति को अव्यवस्था करण-कार्य में भागीदार बनाने के लिए मजबूर करता जा रहा है। और कुछ ऐसी आवाजें सुनने में आ रही है कि धरती के प्रभाव क्षेत्र की मोटाई 100 में से 32 भाग विलय हो गयी अथवा बीच-बीच में बहुत सारे गड्ढे हो गये। जो विलय हो गये-गड्ढे हो गये वही सूर्य की किरणों को रश्मियों में बदल कर धरती में पचने योग्य बनाकर धरती तक पहुँचाती रही है। बीसवीं शताब्दी के दसवीं दशक में यह भी सुनने में आ रहा है कि धीरे-धीरे धरती में गर्मी बढ़ रही है (ताप वृद्धि)। साथ में यह भी सुनने को मिल रहा है कि समुद्र में जल स्तर बढ़ रहा है। इन दोनों के संबंधों को इस तरह बताया जा रहा है कि दक्षिणी-उत्तरी ध्रुवों में जो बहुत सारा बर्फ जमा हुआ है वह सब धीरे-धीरे धरती के तापवश और सूर्य की किरणों वश द्रव रूप में बदलने से वही समुद्र के जलस्तर को बढ़ाने का कारण बता रहे हैं। सामान्य लोगों को जल स्तर बढ़ता हुआ बोध नहीं हो पा रहा है। फिर भी जनचर्चा में यह भी एक मुद्दा बन चुका है। यहाँ विचारणीय बिन्दु यह है कि इस धरती में समुद्र का जल स्तर ऋतु सम्मत और संतुलन विधि सहित इस धरती के सतह में सम्पूर्ण विकास प्रक्रिया, प्रणाली और जागृत-प्रक्रिया-प्रणाली वर्तमान में प्रकाशित होने योग्य व्यवस्था स्थापित रही है। पुनश्च विकास, विकास क्रम वर्तमान में प्रकाशित रहना ही अस्तित्व सहज सहअस्तित्व रूप में कार्यकलापों, परिणामों, परिवर्तनों का प्रयोजन प्रमाणित है।

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