तक अध्ययन सुलभ नहीं हो पाया है। किसी वस्तु के अध्ययन सुलभ होने के उपरान्त ही इसकी अभिव्यक्ति-सम्प्रेषणा सहज होना सर्वविदित है। अतएव काल्पनिक आनन्द अभिनयात्मक प्रदर्शन के योगफल में क्रमागत विधि से श्रृंगारिकता ही सर्वाधिक अभिनयों के माध्यमों से भ्रमित मानव को प्रिय लगना स्वाभाविक है। इसी को एक मानव के लिए आवश्यकता, उपलब्धि के रूप में कल्पना करते हुए वीभत्स और रौद्र रस तक कल्पनाएँ दौड़ा ली। इसे चाव से लोग एकत्रित होकर देखते रहे अभी भी देखते है। जबकि काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, मात्सर्य ये सब मानव के आवेश का विन्यास और प्रकाशन है। इसके स्थान पर समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व, प्रामाणिकता, व्यवस्था मूलक जनचर्चा कला साहित्य प्रकाशन, प्रदर्शन, शिक्षा-संस्कार व्यवस्था पर आधारित जनवाद की आवश्यकता है। दूसरे भाषा में मानव के साथ मानव की चर्चा का, वार्तालाप के निष्कर्ष का, संवादों का आधार होना एक आवश्यकता है। क्योंकि जिस विधि हम आदि काल से अभी तक गतित हुए है, उस जनचर्चा में भ्रमात्मक भाग ही सर्वाधिक है। प्रयोजनवादी यथार्थ का भाग न्यूनतम है। इसको हम भली प्रकार से मूल्यांकन कर सकते हैं। पूर्णत: प्रयोजनशील यथार्थ को रोजमर्रा की चर्चा में ला सकते हैं।
डाका, डकैती, जानमारी, गबन, शोषण, जघन्य पाप कृत्यों में नाम कमाया हुआ व्यक्तियों और हर मूर्ख समझदार में, से, के लिए गणतंत्र प्रणाली में भागीदार होने का अवसर, गणतंत्र प्रणालियों को अपनाये हुए सर्वाधिक संविधानों में प्रावधानित है। इसकी शुभ कल्पना यही रही जो जीता-जागता हमने देखा है कि गाँव-मुहल्ला में जब कहीं भी कोई कुकृत्य, गलती होती है उसका उजागरण होता हुआ देखा गया है। उजागर साक्ष्यों के आधार पर स्थानीय बुजुर्ग पंच अथवा मुखिया नाम से जो व्यक्ति सम्बोधित होते रहे उनके द्वारा लिया गया सभी निर्णय सर्वाधिक लोकमानस को स्वीकृत होता रहा। इसी आधार पर देश का मसला भी सुलझाया जायेगा, ऐसी मानसिकता से गणतंत्र प्रणाली के हम सब पक्षधर हुए। इसे राष्ट्रीय संविधान का रूप देने के लिये तत्पर हुए। लिखित अलिखित विधि से यह स्वीकारना आवश्यक हो गया कि जनमत प्राप्त करने के लिये धन खर्च करना आवश्यक है। जबकि गाँव-मुहल्ला में जितने फैसले हुए उन किसी फैसले के मूल में फैसला को चाहने वाले व्यक्ति ने धन खर्च नहीं किया था। इसका गवाही इस प्रबंध के लेखक स्वयं है। हमारे जैसे और भी बहुत से लोग इस धरती पर विद्यमान होगें। यहाँ मुख्य मुद्दा यही है जिनको हमारा धर्म तंत्र अज्ञानी-पापी-स्वार्थी कहते आया और हर राजतंत्र अपने संविधान को अपने ही देशवासी गलती और अपराध कर सकते है ऐसा मानते हुए ही सभी संविधान बनाया। उन सबके लिए समान अवसर को गणतंत्र प्रणाली में समावेश करना एक