सहमत होते हैं, हुए हैं और सर्वशुभ साकार होने के लिए आवश्यकीय कार्य, व्यवहार, विचार, अनुभव, अनुभव प्रमाणों के साथ जीने में तत्पर हो चुके हैं। इस मुद्दे को इसलिए यहाँ स्पष्ट किया गया कि रहस्यमयी ईश्वरवादी और भौतिकवादी (संघर्ष केन्द्रित) विधियों से मानव का अध्ययन मानव के लिये संतुष्टिदायक नहीं हो पाता है।
अतएव संवेदनशील चर्चा आदि मानव ने जब से शब्दों द्वारा या भाषा द्वारा एक दूसरे के लिए निश्चित संकेतों को प्रसारित करना शुरू किया, तब से अभी तक इन्द्रिय सन्निकर्षात्मक अथवा संवेदनशील चर्चाओं को कहते-सुनते, लिखते-पढ़ते ही आया है। अन्य चर्चाएं जो कुछ भी है, इन्द्रिय सन्निकर्ष के सीमा में ही स्वर्ग-नर्क आदि रोमांचक चर्चा, परिकथा, उपन्यासों को गढ़ा हुआ दिखाई पड़ती है। यह भी मेधावियों को विदित है, इस प्रकार जन प्रवृत्ति इन्द्रिय सन्निकर्ष और उससे सम्बंधित घटनाओं के वर्णन में ही परिसीमित रहना सुस्पष्ट है। इस धरती पर आज की स्थिति में 600-700 करोड़ आदमी विद्यमान है। हर आदमी ज्यादा से ज्यादा जीने के लिए इच्छुक, कम से कम उत्पादन कार्य में भाग लेने का इच्छुक, अधिकाधिक सुविधा-संग्रह को एकत्रित करने के लिये इच्छुक, अतिभोग बहुभोग के लिए इच्छुक होता हुआ देखने को मिल रहा है। सन् 1950 से हर दशक में इस मानसिकता से सम्पन्न व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि होती हुई बीसवीं शताब्दी के इस दशक में 45 से 50% व्यक्ति इस प्रवृत्ति में आ चुके हैं। इसमें अपने सार्थकता वैभव और महिमा की पहचान बनाने के लिये प्रयत्नशील होते हुए देखने को मिल रहे है। इसी के साथ साथ यह भी एक परिस्थिति जन्म चुकी है कि अधिकांश लोगों ने उत्पादन कार्य में भागीदारी की आवश्यकता को मान लिया है। जबकि इस स्थिति में मानव के लिए उत्पादन कार्य के लिए प्रवृत्ति घटती जा रही है। अतएव आज की स्थिति में कुछ विडम्बनाएँ जनचर्चा के रूप में समावेशित हुई है।
क्रमागत विधि से मानव की आवश्यकताएँ हर दिन बढ़ती आई। इस मुद्दे पर हमारा अनुभव है कि सन् 1950 में प्रौद्योगिकी विधि से आवश्यकीय वस्तु की संख्या जितनी भी रही, वह सब बढ़कर वस्तुओं की संख्या सन् 1995 तक 10 गुणा अधिक हो चुकी है इसमें से सुविधावादी वस्तुएँ ज्यादा बढ़ती गयी और सभी माध्यम भोग मानसिकता को बढ़ावा देने में उद्यत हो गये। संवेदनशील विधि से जो कुछ भी किया जा सकता है, वह सब अधिकतम कर चुके। प्रकारान्तर से जनमानस में चर्चा का विषय यही बना रहा। यह सब धरती के साथ, नैसर्गिकता के साथ, मानव प्रकृति के साथ द्रोह, विद्रोह, शोषण करने के परिणाम में सुविधाजनक सामग्रियों की