ये सभी स्मारक मानव में मतभेदों का अड्डा है। आस्था के साथ-साथ किसी एक समुदाय में आस्था की प्रेरणा स्थली दूसरे समुदायों के लिए द्वेष की स्थली है। इस प्रकार से सोचने वालों की संख्या वृद्धि हो रही है।
इसी क्रम में मूल्यों की चर्चा की स्थली उक्त प्रकार की जनचर्चा से निकलती है कि सुविधा संगह, भोग-अतिभोग, बहुभोग जो कुछ भी विपरीत सविपरीत घटनाएँ घटती है। उन सब को मूल्य बताया जा रहा है। इसी प्रकार आस्था, द्वेष, भय, प्रलोभन, ईश्वरीय कानून परस्ती विधि से किया गया जितने भी द्रोह, विद्रोह, शोषण को और उसके विपरीत क्रिया को मूल्य बताया जाता है और इन ख्याति को शिक्षा में समावेश करने के लिए गोष्ठी भी करते है। युद्ध संबंधी विजय, पराजय और उसकी ख्याति पर बहुत सारी जनचर्चा हो चुकी है। जनचर्चा में यह भी सुनने को मिलता ही रहा कि जितने भी अवांछित-वांछित क्रियाकलाप, फल परिणामों को कला का नाम देते रहे, शनै: शनै: कुछ विद्वान कहलाने वालों के मुँह से यह भी सुनने को आया कि बीड़ी, दारू, चोरी करना भी मूल्य है और इनको न करना भी मूल्य है। इस प्रकार चर्चाओं का बदहाल, बदहाल का मतलब कुछ भी नहीं पाना, हम बहुत कुछ सुन चुके है, और भी बहुत कुछ सुनने की संभावना है ही।
परिकथाओं में जीव जानवर, पक्षी से अनेकानेक भूत-भविष्य का वर्णन करने वाली और ज्ञानार्जन करने की अनेक कथा मानव लिख चुके है। उन कथाओं में यही प्रभाव मन:पटल पर होना पाया गया कि मानव से जीव जानवर कहीं ज्यादा अच्छे हैं। ये सुनने के उपरान्त हम अपने में विचार करने लगे कि मानव की जरूरत ही क्या रही? इस धरती पर भार रूप होने के लिए? धरती को उजाड़ने के लिए? अथवा धरती पर जितने भी कार्यकलाप फल परिणाम हैं दु:ख, पीड़ा, कुंठा, निराशा के रूप में त्रस्त होने के लिये है। निष्कर्ष यही हुआ इतने लंबे चौड़े विधाओं में और अनेक विधाओं में दौड़ता हुआ मन लोकमानस है। वैसा ही मेरा मन में भी होना पहचाना। इसी आधार पर मेरा मन सदा-सदा से, जब से शरीर संवेदनाएँ स्पष्ट होने लगी है तब से ही सुरक्षा को चाहने वालो में से पहचाना यदि पहले कही हुई पीड़ाएँ नियति है, मुझे सुरक्षा की आवश्यकता क्यों महसूस हो रही है? इस विधि से मानसिक रूप में उठी उर्मि अनेकों प्रकार में फँसते-फँसते अंतिम निश्चयन यही आया कि विगत के सभी अनिश्चयात्मक कुंठा त्रासदी दुख को स्वीकारने योग्य जितने चर्चाएं समुदाय परम्परा में, जन परम्परा में प्रचलित है, प्रभावित है ये सब निरर्थक है। इसमें फँसने के उपरान्त हर व्यक्ति अपने मानसिकता के रूप में त्रस्त होना निश्चित है। इसी