के उस आरम्भिक अस्मिता को बढ़ावा देता रहा कि “प्रकृति पर विजय पाने के लिए विज्ञान का उपयोग है”। इस क्रमागत विधि से इस शताब्दी के सातवें दशक तक परमाणु ईंधन की सहायता से इस धरती से आकाशयान चाँद पर पहुँच गया। एक विधि से यंत्र से मानव भी पहुँचा, दूसरे विधि से केवल यंत्र पहुँचा। दोनों विधि से किये गये प्रयोग वहाँ पानी, प्राणवायु, वनस्पति संसार, जीव संसार स्थापित न होने का निष्कर्ष था। वहाँ के मिट्टी, पत्थर संग्रह करने के उपरान्त भी वहाँ से (चंद्रमा से) कुछ पाने का आसार नहीं बन पाया। ये सब जनचर्चा में आ चुकी थी। आज भी प्रकारान्तर से बनी हुई है।
जनचर्चा में विज्ञान संसार के चमत्कारों की चर्चा बारम्बार होती रहती है। विज्ञान संसार का तात्पर्य किसी घटना को विश्लेषित करने में समर्थ होना। इसकी अभीप्सा उस घटना को मानव घटित कराने का भरोसा विज्ञान की अस्मिता रही। इस क्रम में मानव और जीवों से अधिक गति के लिये चक्र (पहिये) पर बैठकर चलना ही मुख्य बात रही। चक्र पर सजा हुआ यान-वाहन को खींच ले जाने के लिए यंत्र स्थापित हुए। इन यंत्रों में से तीन प्रजाति प्रधानत: देखने को मिलती है। एक वाष्प विधि से, दूसरा तेल-ईंधन विधि से और तीसरा विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा नियोजन विधि से चालित होता हुआ, प्रमाणित हो चुका है। इन सब ईंधन विधियों के साथ परमाणु ऊर्जा अर्थात् परमाणु विस्फोट नियोजन को भी मानव परम्परा अपना चुका है। सर्वधर्म चर्चाओं में मानव को तार्किक जानवर के रूप में ही निरूपित करते आये। मानव के संदर्भ में विज्ञान प्रयोगों और विचारों को चलने का निष्कर्ष इतना ही निकला मानव जाति ईश्वरीय कानून को पालन करने योग्य वस्तु है इसी से मानव का कल्याण होता है। ऐसा कहने वाले सब महापुरुषों की गणना में आते रहे। महापुरुषों की गणना सामान्य मानव ही करते रहे। यही विडंबना रही। ऐसा बताने वाले को अवतार, ईश्वर का दूत आदि नामों से भी संबोधन किये। आज भी ये सब आवाजें सुनने मिलती है। पहले ज्यादा मिलती थी। ईश्वरीय कानून परस्ती मानसिकता शनै: शनै: शिथिल होती रही। यह इस शताब्दी के आरंभिक दशक से ही क्षतिग्रस्त होते आया। इस अन्तिम दशक में यह देखने को मिल रहा है कि विभिन्न देशों में स्थित, ज्यादा से ज्यादा मुद्रा संग्रह किया हुआ लोग विभिन्न पंथ परम्परा में कहे गये ईश्वरीय कानून की रक्षा करने के लिए उनके अनुसार स्मारकों को मिट्टी, पत्थर, लोहा, सीमेन्ट से निर्मित करता हुआ, पैसा देता हुआ देखने को मिला। इसमें लेने वाला लेकर के बहुत उत्साही दीखते है। देने वाला देकर भी प्रसन्न दिखते है। चाहे ये दोनों जितने भी प्रसन्न रहे, ऊपर कहे गये द्रव्यों से ही सभी स्मारक बना हुआ है। इसका विश्लेषण समीक्षा में अल्प आंशिक लोगों के बीच यह भी चर्चा सुनने को मिलता है