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संख्या-तादाद बढ़ता ही आया। भोगवादी मानसिकता में संग्रह की वितृष्णा इस शताब्दी के मध्य भाग से सर्वाधिक 100 गुणा से अधिक प्यास बढ़ चुकी।

जनचर्चा में सुविधा संग्रह का सर्वाधिक बोलबाला इस बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में देखने को मिला। इस विधि से यह भी इस समय के मेधावियों को पता लग चुका है कि सब को इतना सुविधा संग्रह, मिलना संभव है ही नहीं। प्रौद्योगिकी और उसके लिए ऊर्जा स्त्रोत रूपी खनिज कोयला और तेल का दोहन सदा-सदा से, जब से वैज्ञानिक युग आरम्भ हुआ तब से दिन दूना रात चौगुना होता ही आया है। इन सब के परिणाम में जनचर्चा में यह भी देखा गया, वस्तु संग्रह की ओर सर्वाधिक लगाव का संकट पीड़ित हुआ, स्थिति को भी आज देखा जा रहा है। उक्त मुद्दों पर अर्थात् संवेदनशील विधि से जितने भी मुद्दे पर हम अपने में गतिशील होने में समर्थ हुए वह सब किसी न किसी अव्यवस्था के चक्कर में ही फँसता रहा। यह भी देखने सुनने में मिल रहा है अनुसंधान शोध में इन बातों की झलक आ रही है, हमें किसी सार्वभौम व्यक्तित्व रूपी मानव अथवा नर-नारी को पहचानना ही होगा, उसे लोकव्यापीकरण करने के लिए सार्थक कार्यक्रम की आवश्यकता है। इसी क्रम में श्रेष्ठतम प्रौद्योगिकी शिक्षण संस्थाओं में भी मूल्यों की चर्चा पर पहले पहल करना भी आज के एक कार्यक्रम के रूप में देखने को मिल रहा है।

मूल्यों के संदर्भ में जनचर्चा प्रकारान्तर से सुनने को मिलता ही रहा। इस शताब्दी के मध्यकाल से अंतिम चरण तक जो देखा गया, उसका प्रधान मुद्दा शासित रहना मूल्य रक्षा के स्वरूप में सुनने में आती रही। जैसे रूढ़ियाँ, परम्परा, नाच-गाना, कपड़ा-आभूषणों का पहनावा, नित्यकर्म, नैमित्यिक कर्म को मूल्य रक्षा का प्रमाण माना जाता रहा। मान्यताओं पर आधारित कर्म आचरण रूपी अनेक रूढ़ियाँ, अनेक परम्परा के रूप में इस धरती पर समायी। विज्ञान युग का प्रभाव इन परम्पराओं को इस शताब्दी के अंत तक अत्यधिक प्रभावित किया। इस प्रभाव का सार प्रक्रिया दूरश्रवण, दूरदर्शन, दूरगमन संबंधी प्रयोग और जन सुलभीकरण कार्य में प्रसक्त हो चुकी थी। इसी के साथ यह भी घटना घटित हो चुकी थी कि परमाणु विस्फोट से विध्वंसकता कितनी हो सकती है वह भी एक आँकलन के रूप में आ चुकी थी। हर गोष्ठी-संगोष्ठी में विज्ञानवेत्ता भी परमाणु विस्फोट के विध्वंसक कार्यों को सम्मति नहीं दे पाते थे, अपितु शान्तिपूर्ण कार्यों में प्रयोग की प्रस्तावना करते रहे। मध्यमवर्गीय लोगों के मन में भी ऐसी ही स्वीकृतियाँ होती रही और आशावादी विधि से, इस प्रकार संवाद करता हुआ मिला कि धरती में ऊर्जा की कहीं कमी नहीं है। परमाणु ऊर्जा अकूत है, विध्वंसात्मक विधि ठीक नहीं है यह उद्गार विज्ञान

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