के साथ इतना सब प्रक्रियाएँ मानसिक रूप से गुजरने के बाद इस निश्चय पर पहुँचा कि जनमानस में निश्चयों-निर्णयों समाधान और सार्थकता के आधार पर जनसंवाद की आवश्यकता है। इस जन शब्द के अर्थ के अंतर्गत मैं अपने को भी पहचाना। फलस्वरूप कैसे चर्चाएं होना चाहिये इस विशाल सोच की जगह में हम पहुँच गये।
इस क्रम में सोच विचार के अभ्यास क्रम में अस्तित्व को मूलत: समझने के लिए तत्पर हुए। अस्तित्व स्वयं में से प्रश्न और उत्तर संबंध मेरे से ही उदय हुआ ? मेरा होना ही मेरा अस्तित्व है यह पता चला। तर्क संगत विधि से सबका होना भी अस्तित्व है। और उसकी यथार्थताओं को परिशीलन करते करते यह पाया कि अस्तित्व स्वयं व्यापक वस्तु में संपृक्त अनंत इकाईयों का वैभव है। यह वैभव वर्गीकृत विधि से होना हमें स्पष्ट हो गया। जिसमें से मानव भी एक वर्ग का अवतरण है। इस अर्थ में कि इस धरती पर वैभव है। मानव को हम ज्ञानावस्था की इकाई के रूप में पहचाने। ज्ञानावस्था का मूलरूप में ज्ञान की सम्पूर्णता को समझदारी नाम दिया। सहअस्तित्व रूप में अध्ययन करने पर देखा गया कि जितने भी वर्गों द्वारा इस धरती पर सहअस्तित्व का वैभव प्रमाणित हुआ है सभी परस्परता में पूरकता विधि से जुड़ी हुई परम्परा के रूप में हैं। इसी प्रकार मानव भी पूरे विधाओं से जुड़ा हुआ स्पष्ट हुआ। इसी आधार पर जनसंवाद का एक रूप रेखा बनी, वह आगे प्रस्तुत है।
जनसंवाद में सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व शाश्वत, नित्य, अक्षुण्ण होने के रूप में संवाद एवं साहित्य सृजन का होना एक आवश्यकता है। मूलत: होने के आधार पर ही हर निश्चयन की आवश्यकता हर नर-नारी में समझ होना आवश्यक है। स्वयं का होना ही इसका आधार है। होने की ही स्वीकृति होती है। क्योंकि हर नर-नारी हर आयुवर्ग में स्वयं का होना स्वीकारे ही रहते है। यह जनसंवाद में सुदृढ़ होने की आवश्यकता है। सब कुछ होने की पुष्टि धरती पर हम रहते ही है। जलवायु, अन्न, वनस्पति का सेवन करते ही है। ये सब चीज होने के आधार पर सार्थक होना देखने को मिलता है। जंगल झाड़ी का होना हमें समझ में आता है, इनके प्रयोजनों को एक दूसरे के संवाद में पहचान पाना, स्वीकार कर पाना सार्थक मुद्दा है। उससे ज्यादा सार्थक यही है जंगल, झाड़ी, धरती, हवा, पानी के संबंधों का पहचानना व निर्वाह कर पाना। संतुलन की बात यहीं से शुरू होती है। इन सब के साथ हमारा होना निश्चित होता ही है। इनके साथ हमारा संतुलन सूत्र क्या है ? यह भी एक चर्चा का मुद्दा बनता है। परम्परात्मक विधि से ही हम मानव इसी धरती पर उक्त सभी नैसर्गिकता के साथ होते हुए आए। नैसर्गिकताओं से मानव पर