जो उपकार होता आया है वह स्वीकार हुआ है। जो प्रतिकूल होता है अस्वीकार होता है। जैसे हवा, पानी, अधिक होने से या कम होने से अनुकूलता या प्रतिकूलता की स्वीकृति मानव में होती है। ये हर मानव अच्छी तरह से स्वीकार सकता है। जो हम स्वीकारे रहते हैं वही संवाद में आना स्वाभाविक है। सार्थक स्वीकृतियाँ सार्थकता के अर्थ में प्रभावित होना पाया जाता है।
सर्वमानव में सार्थकताएं स्वीकृति के रूप में समाधान, समृद्धि, अभय, सहस्तित्व के रूप में होना पाया जाता है। संवाद, तर्क का उद्देश्य किसी निर्णय पर पहुँचने का ही सूत्र है। आदिकाल से ये आशय रहा है हर नर-नारी का उद्देश्य सार्वभौम रूप में पहचान न होने से ही इन्द्रिय सन्निकर्ष के लिए अनुकूलता प्रतिकूलता को केन्द्र बनाकर जनचर्चा सम्पन्न होती आई। जबकि सर्वमानव की ज्ञान विवेक विज्ञान सम्पन्न व्यवहार प्रतिष्ठा और कर्म प्रतिष्ठा के आधार पर ही पहचान हो पाती है। इन दोनों विधाओं के रूप में विचार, स्वीकृति, निश्चयन मानव में समाहित रहने की आवश्यकता पायी जाती है। इनके परिष्कृति के आधार पर ही कर्म प्रतिष्ठा और व्यवहार प्रतिष्ठा संकीर्ण और विशाल, सार्वभौम और व्यक्तिवादी होना पहचाना जाता है। मूलत: सहअस्तित्व स्वीकृत होने के आधार पर जो भी दृश्यमान है, जो भी समझ में आता है, जो भी करने-कराने, सीखने-सिखाने, समझने-समझाने को प्रवृत्ति होती है ये सब उद्देश्यों के आधार पर ही प्रवर्तित होना देखा जाता है। जैसे अभी पढ़ने को गौरवमयी, आवश्यकीय कृत्य के रूप में हर मानव स्वीकारा हुआ है। अति प्राचीन-जितने भी शिक्षक रहे है वे सम्मान, पारितोष पाने के अर्थ में ही अथवा पुरस्कृत होने के अर्थ में ही प्रवर्तित रहे। वही शिक्षक अब वेतन भोगिता के रूप में प्रतिफल मान्यता को स्वीकारते हैं। आज भी अर्थात् सन् 2000 के अवधि में भी यही उद्देश्य स्वीकृत है।
आज की स्थिति में सम्पूर्ण शिक्षा, नौकरी, व्यापार, प्रौद्योगिकीय प्रवृत्ति के रूप में प्रवर्तित होता हुआ देखने को मिल रहा है। प्रौद्योगिकीयता में सभी उत्पादन कार्य जहाँ तक जनोपयोगी है वह सब सार्थक होना स्पष्ट है। इन सभी उत्पादनीयता के पक्ष में जनसंवाद, हर उत्पादन की पवित्रता, सटीकता, उपयोगिता, सदुपयोगिता के अर्थ में संवाद की आवश्यकता है ही। जनसंवाद एक अनुस्यूत क्रिया है यह मूलत: आज भी आगे भी मनाकार को साकार करने के अर्थ में है। इसी क्रम में विविध प्रयास, शोध, योजनाएँ, प्रौद्योगिकी, उत्पादन के अर्थ में जनकार्य स्थली तक पहुँच चुका है। इसमें बहुत सारे लोग भागीदारी कर ही रहे हैं। प्रौद्योगिकी की नौकरी, व्यापार ये सभी लाभोन्मादिता के रूप में उन्मुख, प्रवर्तित, कार्यरत होता हुआ देखने को मिलता है। यही