के मूल कारणों की ओर पहले ध्यान दिया जा चुका है। सभी समुदायों में संघर्ष और भय अस्वीकृत होते हुए भी इसकी चर्चा बार-बार देखने को मिलती है। इसके परिशीलन में यही पाया गया कि स्वीकृत होने वाले तथ्यों को चर्चास्पद बनाने में परम्पराएँ असमर्थ रही हैं। जैसे हर मानव विश्वासपूर्वक जीना चाहता है। विश्वासपूर्वक जीने की चर्चा और चर्चा की मूल वस्तु उसकी प्रयोजनकारिता को परम्परा कोई दिशा नहीं दे पायी। यह व्यवहारिक होने के कारण व्यवहारात्मक चर्चा की अति आवश्यकता है। प्रकारान्तर से हर मानव की मानव के साथ और नैसर्गिकता के साथ जीने की स्थिति की कम से कम शरीर यात्रा पर्यन्त प्रभावित करने की स्थिति समीचीन रहती ही है। जबकि सभी चर्चाएं अलगाव-विलगाव की ओर ले जाती हुई देखी जाती हैं। अभी तक की चर्चा की निश्चित विभाजन रेखा भोगवाद और त्यागवाद है। ये दोनों व्यक्तिवादी होने के कारण अलगाव-विलगाव होने की मानसिकता और चर्चा मानव कुल में व्याप्त है। ऐसी व्यक्तिवादी अहमता को और कठोर बनाने के क्रम में अनेकानेक तरीके अपनाए गए ऐसे तरीकों में माध्यम अतिमहत्वपूर्ण रहा।
माध्यम परीकथा के रूप में प्रारंभ होकर वर्तमान स्थिति में दूरगमन, दूरश्रवण, पत्र-पुस्तिका, दूरदर्शन, स्मारिकाएँ, उपन्यास आदि नामों से जाने जाते हैं। यह सब सार संक्षेप में अपराध और श्रृंगारिकता का प्रचार ही है। इन प्रचारों के बौने आधार पर यह मानसिकता के लोग शिक्षा के लिए प्रस्तुत होने के पक्ष में दलीलें मानव के वार्तालाप में देखने को मिलती है। उसी क्रम में जितने भी दृष्टांत देखने को मिले हैं। उनके अनुसार अपराधिक और श्रृंगारिक प्रयासों में प्रवृत्ति देखने को मिली। इसका मूल कारण सकारात्मक अथवा व्यवहारात्मक चर्चा की वस्तु से हम वंचित व माध्यमों शिक्षा, शासन व्यवस्था के दावेदार कहलाने वाले स्वयं रिक्त रहे हैं। इन सबके दिशाविहीन होने के फलस्वरुप यदि किसी दिशा की पहचान होती है तो केवल सुविधा संग्रह, भोग, अतिभोग, बहुभोग की ओर ही होती है। अन्यथा इससे असफल होने की स्थिति में विरक्ति-भक्ति की हो पाती है। इन तमाम प्रकार की नकारात्मक रोमांचक चर्चाओं के साथ-साथ केवल व्यक्तिवादी मानसिकता ही सघन होती हुई देखी गयी। दूसरी भाषा में व्यक्तिवादी अहमता बढ़ती गयी।
भय-भ्रान्ति से मुक्ति को चाहना और समाधान, समृद्धि सम्पन्न रहना, ये सब आकांक्षा के रूप में देखने को मिलता है। इसी के साथ-साथ उपकारी होने की आकांक्षा भी किसी न किसी अंश में होती है। सहयोगिता प्रवृत्ति शिशुकाल से ही देखने को मिलती है। यही वृद्धावस्था में भी किसी