2. मनुष्य स्वयं अपने साथ विश्वासघात कर लेता है (वातावरण में, नैसर्गिकता के साथ विश्वासघात करते ही आया है। इसका प्रमाण है, नैसर्गिकता, वातावरण में असंतुलन बढ़ते आया) जैसे मानव - मानव के बीच अविश्वास, द्रोह, विद्रोह गहराना, शोषण प्रवृति, संग्रह रुपी प्रलोभन का बढ़ना, परस्पर समुदायों के बीच शोषण, युद्घ, द्रोह, विद्रोह ही राजनीति का आधार होना- ये सब गवाहियाँ है।
इससे कोई बेहतरीन समाज रचना अभी तक नहीं हो पाई और न ही इस विधि से हो पायेगी। इसका सिद्घांत यही है कि गलतियाँ कितनी ही बार दुहराई जायें उससे कोई सही उत्तर नहीं निकलता। सकारात्मक विधि से हर सही कार्य को कितनी ही बार दुहरायें उसका परिणाम सही और सार्थक समाधान ही निकलेगा। अब इस संसार में मानव से पूछा जाये कि “आप सही चाहते है या गलत?” तो हर व्यक्ति सही के पक्ष में ही सहमति प्रदान करता हैं। साथ ही सही और गलत क्या है? - यह पूछने पर यह उत्तर निकलता है कि सही गलत का संक्रमण बिंदु या सीमा रेखा स्पष्ट नहीं है। यह पूर्ववर्ती दोनों विचारधाराओं के अनुसार प्राप्त तर्क का स्वरुप हैं।
सही और गलत का संक्रमण बिन्दु अथवा सीमा रेखा जागृत मानव को समझ में आता है। जागृत मानव ही विकसित मानव है। जागृति के लिए प्रयत्नशील मानव ही विकासशील मानव हैं। जागृति के लिए प्रयत्नशील मानव को अल्प जागृत व अर्ध जागृत मानव जागृति क्रम कोटि में पहचाना जा सकता है। जागृति का प्रमाण है - अस्तित्व दर्शन अर्थात् सहअस्तित्व के प्रति पूर्ण जागृति अर्थात् :-
1. अस्तित्व कैसा है, इसका संपूर्ण उत्तर जिसके पास हो।
2. जो जीवन ज्ञान अर्थात् चैतन्य स्वरुप के अध्ययन में पारंगत हो और जिसका मानवीय आचरण वर्तमान में प्रमाणित हो, यही जागृत व्यक्ति का स्वरुप है।
इसका मतलब यही हुआ कि जो जीवन को भले प्रकार से जानता मानता हो; अस्तित्व को भले प्रकार से जानता मानता हो और मानवीयतापूर्ण आचरण अर्थात् स्वधन, स्वनारी, स्वपुरुष और दयापूर्ण कार्य-व्यवहार करता हो; तन, मन, धन रुपी अर्थ का सदुपयोग एवं सुरक्षा करता हो, संबंधों को पहचानता हो, मूल्यों का निर्वाह करता हो- यही मूल्य, चरित्र, नैतिकतापूर्ण मानवीय आचरण है।
इस प्रकार जागृत मानव का स्वरुप, कार्य और प्रमाण स्पष्ट हो जाता है। यह मानव कुल में अध्ययनगम्य होना और व्यवहारिक होना सहज है। जागृत मानव परंपरा का आधार भी इन्हीं तीन तथ्यों का मानव परंपरा में होने मात्र से है। जीवन ज्ञान और मानवीयता पूर्ण आचरण ज्ञान के रूप में मानवीयता प्रमाणित होती है। सहअस्तित्व दर्शन ज्ञान से वर्तमान रूप में विद्वत्ता प्रमाणित होती है। जीवन ज्ञान ही जीवन विद्या है।