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इसको देखा, समझा और अनुभव किया गया है। बोध और अनुभव, सत्य सहज रूप में ही हो पाता है। परम सत्य सहअस्तित्व ही है। अस्तित्व समग्र शाश्वत वर्तमान है। अस्तित्व में इस धरती में दिखने वाली चारों अवस्थाएँ हैं। इसी का प्रमाण है कि इस धरती पर ये चारों अवस्थाएँ स्वयं प्रमाणित हैं। अस्तित्व में होना ही कभी भी, कहीं भी प्रमाणित होना है।

जैसे अभी हम देख रहे है, समझ रहे है चन्द्रमा पर कोई जीव -जन्तु, वनस्पति नहीं है। कालान्तर में वहाँ ये सब होने की संभावना बनी है। सूर्य को मानव ज्ञान के अनुसार सर्वाधिक तपे हुए बिंब के रूप में पहचाना जाता है। मानव की कल्पना में यह भी आता है कि कालान्तर में यह ठंडा हो सकता है- ऐसा भी सोच सकते हैं। ऐसी स्थिति में इस धरती की स्थिति, गति क्या होगी, इस संदर्भ में कल्पनाओं को दौड़ाया जाता है। सूर्य यदि ठंडा हो गया तो उसके पहले तरल, ठोस रूप में परिवर्तित होगा यह अवश्यंभावी है। तब चन्द्रमा जैसी धरती हो गई, यह माना जा सकता है। अभी चन्द्रमा में जैसा हम सोचते है, आशा रखते है, कि भविष्य में रस, उपरस, रासायनिक वैभव वहाँ साकार हो सकता है। उसी प्रकार सूर्य में भी ऐसा हो सकता है यह सोचा जा सकता है। मानव की कल्पनाशीलता सीमित नहीं है, यह कितनी भी हो सकती है। मानव सहज कल्पनाशीलता अक्षय है जबकि अस्तित्व स्वयं में व्यापक और अखण्ड है । शब्दों से यथार्थ को व्यक्त करते हैं। इस गवाही से पता लगता है कि मानव सहज कल्पना देश कालों का दृष्टा हो जाता है। भले ही वह कल्पना द़ृश्यों का दृष्टा न हो।

इस तरह प्रकारान्तर से यह हर व्यक्ति में (दृष्टा होना और कल्पनाशील होना) प्रमाणित होता ही है। अस्तित्व अनंत और व्यापक है। देशकाल से मुक्त हैं। इसी आधार पर इसमें देश कालातीत महिमा का होना अवश्यंभावी रहता है। यह दृष्टा पद मानव में सहज सार्थक होता है। अस्तित्व में जागृत मानव ही दृष्टा पद में है। दृष्टा, दृश्य, दर्शन अविभाज्य है, क्योंकि अस्तित्व में चारों अवस्थाएँ सत्ता में अविभाज्य है। जागृत मानव का अस्तित्व में अविभाज्य प्रमाणित होना ही दृष्टा पद का प्रमाण है। इस तथ्य को ध्यान में लाने पर बहुआयामी कार्य सहित मानव की समीक्षा उनके कार्यों के आधार पर स्पष्ट हो जाती है।

अस्तित्व नित्य वर्तमान है, जागृत मानव दृष्टा पद में है; यह परम सत्य है, इस पर आधारित एक नजरिया है। इस नजरिए से विगत को, इतिहास के ढंग से देखने पर पता चलता है कि सभी परंपराएँ अपने-अपने समुदाय अथवा व्यक्ति के लिए अनेकानेक छल, बल, समोहन, प्रलोभन करती रही और इससे परेशानियाँ बढ़ाता रहा। इसका मूल कारण इतना ही है कि भ्रमित मानव समुदाय परंपरा में अपने ढंग से भ्रमित रहकर भ्रमित परंपरा बनाने के लिए जीवन की शक्तियों को लगाते रहे। आदिकाल से ही मानव जीवन और शरीर का संयुक्त साकार रूप है, जीव चेतनावश भय प्रलोभन रूप में जीवन शक्तियाँ पहले भी काम

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