मानवीयता का अभाव, संस्कार परंपरा में मानवत्व तथा मानवीयता का अभाव, संविधान में मानव मूल्यों और मूल्यांकन का अभाव, व्यवस्था में मानवत्व मानवीयता संबंध और इसके निर्वाहों का अभाव।
राज्य का अर्थ संस्कार और व्यवस्था सहज वैभव है। धर्म का अर्थ सर्वतोमुखी समाधान पूर्ण ज्ञान ही संस्कार है, शिक्षा बनाम विद्वत्ता है। मानव का संपूर्ण आधार मानवीयता है यह सहअस्तित्व में अनुभव प्रमाण सहज विद्वत्ता ही है। प्रमाण भी मानवीयता और विद्वत्ता ही है। शिक्षा भी मानवीयता और विद्वत्ता हैं। संविधान भी मानवीयता और विद्वत्ता है। व्यवस्था भी मानवीयता और विद्वत्ता है। इस प्रकार मानवीयतापूर्ण परंपरा नित्य समीचीन रहते हुए नस्ल, रंग, रहस्य और वस्तु विभिन्न भाषा, पंथ, संप्रदाय अहमतावश अर्थात् अतिव्याप्ति, अनाव्याप्ति, अव्याप्ति, दोषवश विद्वान और ज्ञानी कहलाने वाले राज, धर्म, विज्ञान, स्वास्थ्य, कला और साहित्य शास्त्रियों ने मानव परंपरा के स्थान पर भ्रमित परंपरा की अनुशंसा कर डाली, फलस्वरुप संपूर्ण प्रचारतंत्र ही भ्रम के वशीभूत हो गया। इसीलिए बेहतरीन समाज की परिकल्पना ही उभर न पायी। बेहतरीन समाज का तात्पर्य अखण्ड समाज ही है। इसी भ्रमवश, मानव का वैभव प्रमाणित न हो पाया। जो कुछ भी मानव का वर्तमान कहा जावे वह केवल वंशवृद्घि है अर्थात् जनसंख्या वृद्घि ही वर्तमान रह गया है।
मानवीयता अपने स्वरुप में जीवन ज्ञान सहित मानवीयतापूर्ण आचरण ही है। विद्वत्ता का स्वरुप अस्तित्व दर्शन ही है। अस्तित्व को समझना ही अर्थात् जानना, मानना, उसकी तृप्ति बिन्दु का अनुभव करना ही दर्शन है। मानव में पहले बताई हुई दस क्रियाओं के अविभाज्य वैभव को जीवन ज्ञान कहा है। इसे स्वयं में पहचानना, जानना, मानना और उसकी तृप्ति बिंदु का अनुभव करना तथा न्याय, धर्म बनाम सर्वतोमुखी समाधान सत्य बनाम अनुभव और प्रामाणिकता पूर्ण विधि से अभिव्यक्त, संप्रेषित और प्रकाशित होना जीवन ज्ञान का तात्पर्य है।
जीवन सहज कार्यकलापों में, से बोध और अनुभव हैं। तृप्ति क्रम में सहअस्तित्व सहज पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था एवं ज्ञानावस्था ये सभी अवस्थाएँ सत्ता में संपृक्त जड़-चैतन्य प्रकृति के रूप में नित्य विद्यमान, नित्य वर्तमान है। इस सहज सत्य को जानना, मानना और तृप्ति बिंदु का अनुभव करना, उसकी निरंतरता बनी ही रहना, उसकी अभिव्यक्ति, संप्रेषणा को अध्ययन विधि से सार्थक बना देना, साथ ही स्वानुशासन विधि से जीने की कला को प्रमाणित करना ही दर्शन शास्त्र का सार्थक रूप हैं।
सत्य बोध और अनुभव के लिए दर्शक को ज्ञान दृष्टि द्वारा ही दृश्य समझ में आता है। समझ में आने के मूल में जानना, मानना प्रक्रिया है। जानने, मानने का संयुक्त स्वरुप ही अनुभव बोध हैं। इसकी तृप्ति और अक्षुण्णता ही बोध सम्पन्न परंपरा है। दृष्टा पद का प्रयोग बोध और अनुभव के रूप में ही हो पाता हैं।