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शब्द एवं उसकी गति भी ब्रह्म में समाहित है । ब्रह्म शब्द से शून्य भी इंगित है । प्रकृति की पूर्ण विवेचना के उपरांत भी ब्रह्म के सदृश्य कोई और नहीं है तथा उसके संदर्भ में अन्य कोई अनुभव भी नहीं है । प्रकृति का उससे पृथक अस्तित्व नहीं है ।

क्रिया और इकाईयों का सान्निध्य एवं सहवास प्रसिद्ध है । वह विरोध अथवा निर्विरोध पूर्वक स्वागत एवं आस्वादन भाव सहित आशा, आकाँक्षा तथा इच्छा के रूप में मानव में प्रत्यक्ष है ।

ब्रह्म ही परमात्मा है । यही पूर्ण सत्ता है ।

आत्मा का नित्य अभीष्ट होने के कारण इसकी संज्ञा परमात्मा है ।

इकाईयाँ परिमित,परमात्मा अपरिमित है ।

प्रत्येक ज्ञानात्मा अपने अभिन्न अंगों सहित एक मानव शरीर को संचालित करते हुए मानवीयता एवं अतिमानवीयता से परिपूर्ण होने के लिए प्रयासरत है । फलतः परमात्मानुभव करता है ।

ज्ञानात्मा मानवीयता तथा उससे अधिक जागृति (विकसित) के सीमावर्ती स्वभाव एवं कर्मों में व्यवहाररत और आकाँक्षु है । इसके विपरीत भ्रमवश अमानवीयतात्मक स्वभाव-दृष्टि पूर्वक विषयोपभोग में भी रत पाया जाता है ।

अमानवीयता के लक्षण मानवेतर जीव में आंशिक रूप में विद्यमान है ।

मानव अमानवीयता पूर्वक भोग, दृष्टि व स्वभाव से ह्रास की ओर अग्रसर होता है ।

प्रत्येक ज्ञानात्मा भ्रम पर्यन्त शरीर त्याग के समय सुख या दुख, सुरूप या कुरूप के प्रभाव से पूर्णतः प्रभावित हो जाता है । जो स्वप्रभावीकरण है । यही जन्म परिपाक प्रक्रिया है।

स्वप्रभावीकरण प्रक्रिया का बोध मन, वृत्ति, चित्त, बुद्धि सहज शक्तियों के अंतर्नियोजन प्रक्रिया से स्पष्ट हो जाता है ।

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