उपभोग, उत्साह एवं चेष्टा, रहस्यहीनता, सहजता एवं निर्बैरता सुसंस्कारों के लक्षण हैं । लक्षणों के आधार पर ही स्वभाव, तदनुसार ही मूल्यांकन क्रिया है । लक्षण विहीन मानव नहीं है ।
मानव स्वतंत्र या स्वेच्छिक जीवन के प्रति प्रतिबद्ध है । वह केवल यांत्रिक नहीं है । इसलिए प्रत्येक मानव इकाई संवेदनशील एवं संज्ञानशील है एवं पूर्ण होने के लिए प्रयासरत है।
समाधान एवं अनुभव योग्य क्षमता पर्यन्त जागृति भावी है । संवेदनशीलता संज्ञानीयता पूर्वक ही नियन्त्रित होती है । यह क्रम प्रत्यावर्तन एवं परावर्तन में सामरस्यता पर्यन्त श्रृंखलाबद्ध पद्धति से होता रहेगा । परावर्तन प्रक्रिया से ही प्रतिभा की अभिव्यक्ति मानव में मानवीयता एवं अतिमानवीयता के रूप में प्रत्यक्ष है । इन्हीं क्रिया संपन्नता द्वारा वांछित का, लक्ष्य का तथा कार्यक्रम व पद्धति का प्रसारण होना भी भावी है । इसी से अन्य (अप्रत्यावर्तित) ज्ञानात्माओं की अपने में प्रत्यावर्तन योग्य व्यंजना सम्पन्न होना प्रत्यक्ष है ।
प्रत्यावर्तन पूर्वक प्राप्त व्यंजनाएँ जागृति के लिए गुणात्मक गति है ।
गुणात्मक व्यंजना से सुबोध, सुबोध से सुसंस्कार, सुसंस्कार से गुणात्मक संवेदना (संज्ञानीयता पूर्वक संवेदना नियंत्रित रहना), गुणात्मक संवेदना से सत्य संकल्प तथा सत्य संकल्प से गुणात्मक व्यंजनाओं की निरन्तरता है ।
स्थिति एवं क्रिया संकेत ग्रहण क्षमता ही व्यंजनीयता है ।
संकेत ग्रहण प्रक्रियाबद्ध ज्ञान, प्राप्य को पाने, उसे सुरक्षित रखने के कार्यक्रम में अभिव्यक्त है । प्राप्त के अनुभव के क्रम में भास, आभास एवं प्रतीति ही ज्ञापक (सत्यापित होना) है ।
मानव दूसरों के लिए भी संकेत प्रसारित करता है ।
संकेत ग्रहण क्रिया ही अनुमानारोपण तथा अनुमानांकुर भी है । जो संकल्प, इच्छा, विचार व आशा है ।
पाँचों इन्द्रियों द्वारा रसों की व्यंजना मन पर, इन्द्रिय समूह तथा मन के द्वारा तात्विक व्यंजना वृत्ति पर, इंद्रिय मन तथा वृत्ति के द्वारा भावों (मौलिकताओं) की व्यंजना चित्त पर