मन, वृत्ति, चित्त और बुद्धि के क्रमानुवर्ती संवेगों के मूल में पायी जाने वाली इच्छाओं में अपेक्षाकृत तीव्र इच्छाएँ अर्जित स्वभाव है । जो प्रत्यक्ष रूप में विद्यमान रहते हैं । सूक्ष्म एवं कारण कोटि की इच्छाएँ प्रच्छन्न रूप में अवस्थित रहती हैं । यह संस्कारों में पाया जाने वाला सूक्ष्म भाग है । संपूर्ण इच्छाएँ संस्कारगत एवं व्यवहारगत रूप में स्थित है जो प्रमाणित है ।
तीव्र इच्छा को मनाकार व मनः स्वस्थता का रूप प्रदान करने के लिए मानव इकाई तन, मन व धन का नियोजन करती है ।
संवेग तीव्र, मन्द और सूक्ष्म भेद में दृष्टव्य है जो क्रम से तीव्र इच्छा, कारण और सूक्ष्म इच्छाओं पर आधारित है ।
इच्छा गति बराबर संवेग है ।
दर्शन = आकाँक्षा = इच्छा = संवेग = प्रज्ञागति = ज्ञान, विवेक व विज्ञान पूर्ण प्रमाण = दर्शन है ।
प्रवेश पूर्वक (पारदर्शकता पूर्वक) स्थिति संकेत ग्रहण एवं प्रसारण क्रिया ही प्रज्ञा है । अनुभव योग्य क्षमता ही सत्ता में समाहित इकाई की पारदर्शकता है । यही सर्वोच्च जागृति है । सत्ता में प्रकृति संपृक्त रहना प्रमाणित है, साथ ही सत्ता में इकाई का अनुभव पूर्ण होना भी प्रमाणित है ।
पूर्णता के अर्थ में संकेतानुसार वेग ही संवेग है । संज्ञानीयता पूर्वक संवेदनाएं नियंत्रित रहती है ।
ज्ञानावस्था की इकाई में किसी भी प्रकार के संस्कार से संस्कारित होने के पूर्व किसी न किसी पूर्व संस्कार की विद्यमानता स्वभाव के रूप में पायी जाती है । पूर्व संस्कार, अध्ययन एवं वातावरण अग्रिम संस्कारों की स्थापना के लिए अनिवार्य कारण है । संस्कारगत स्वभाव दो श्रेणियों में गण्य है :-
1- मानवीयतापूर्ण,
2- अतिमानवीयतापूर्ण,