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प्रत्येक इकाई में रूप, गुण, स्वभाव एवं धर्म का अध्ययन प्रसिद्ध है ।

ब्रह्मानुभूति ही परमानंद है । यही आनंद सहज निरंतरता है ।

चैतन्य इकाई में गठन परिणाम नहीं है । साथ ही क्रिया और आचरण में पूर्णता के अर्थ में परिमार्जन, गुणात्मक परिवर्तन प्रसिद्ध है ।

आशा, आकाँक्षा, विचार, विवेक और कला, कुशलता-निपुणता तथा पाण्डित्य के अनुरूप में क्रिया आस्वादन एवं अनुभूति के अर्थ में प्रत्यक्ष है ।

प्राप्य का ही आस्वादन एवं सान्निध्य प्रसिद्ध है ।

प्राप्त में ही अनुभूति है “यह” व्यापक, ब्रह्म, ज्ञान, सत्य है ।

व्यापक ब्रह्म है । व्यापक में ही जड़-चैतन्य प्रकृति अविभाज्य वर्तमान है ।

“यह” एवं इसकी अनुभूति देश-कालादि सीमा से मुक्त है ।

संवेदनाओं के आस्वादन मात्र से भी सुख भासता है विलासिता भी इसी उपादेयता की सीमा में सीमित है ।

विलासिता से सुख की निरंतरता नहीं है । यदि होती तो विलासिता की भी निरंतरता होती।

किसी भी प्रकार का भोग-विलास या आराम एक अवधि के अनंतर अप्रिय, अनावश्यक तथा असहनीय होता है । यह प्रसिद्ध है ।

आहार-विहार की क्षण भंगुरता प्रसिद्ध है ।

मानवीयता पूर्ण जीवन में आहार-विहार आदि में संयम तथा आवश्यकता से अधिक उत्पादन और कम उपभोग के सिद्धांत की स्थापना एवं पालन होता है ।

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